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पुष्पदन्तने भी अपने महापुराण में अपने पूर्वके ग्रन्थकर्ताओं और कवियोंका उल्लेख करते हुए चउमुह (चतुर्मुख) का निर्देश किया है । लिखा है
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चहु सयंभु सरिहरिसु दोणु, गालोइउ कइईसाणु वाणु ।'
अर्थात न मैंने चतुर्मुख स्वयंभ, श्रीहर्ष और द्रोणका अवलोकन किया न कवि ईषाण और चाणका ही ।
कवि पुष्पदन्त ६९वीं सन्धिमें भी रामायणका प्रारम्भ करते हुए स्वयंभु और चउमुहका पृथक्-पृथक् निर्देश किया है—
कइराउ सयंभु महायरिउ, सो सयणसहासह परियरिउ । सुकइत्तणु सीसउ काई तहिं ॥
चउमुह नयारि मुहाई जहि
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अर्थात् स्वयंभु महान आचार्य हैं। उनके सहस्रों स्वजन हैं और चतुर्मुखके तो चार मुख हैं, उनके आगे सुकवित्व क्या कहा जाये ।
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हरिषेणते अपनी धर्म-परीक्षा में चतुर्मुखका निर्देश किया, 'रिट्टणेमिचरिउ' में स्वयंभूने लिखा है कि पिंगलने छन्द - प्रस्तार, भामह और दण्डीने अलंकार, वाणने अक्षराडम्बर, श्रीहर्षने निपुणत्व और चतुर्मुखने छर्दनिका द्विपदी और कोंसे जटित पद्धड़ियाँ दी हैं । अतएव स्पष्ट है कि चतुर्मुख स्वयंभुके पूर्ववर्ती हैं । 'पउमचरिउ' के प्रारम्भमें बताया है कि चतुर्मुखदेव के शब्दोंको स्वयंभुदेवकी मनोहर वाणीको और भद्रकविके 'गोग्रहण' को आज भी कवि नहीं पा सकते हैं । इस तरह जलक्रीड़ाके वर्णनमें स्वयंभुकी, 'गोग्रह' कथामें चतुर्मुखदेवकी और 'मत्स्यभेद' में भद्रको तुलना आज भी कवि नहीं कर सकते ।
डॉ० हीरालालजी जैन और प्रो० एच० डी० वेलणकरने भी चतुर्मुखको स्वयंभुसे पृथक् और उनका पूर्ववर्ती माना है । पद्धड़िया छन्दके क्षेत्र में चतुर्मुखका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । सम्भवतः इनकी दो रचनाएँ रही हैं-महाभारत और पञ्चमीचरिउ । आज ये रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । अतः इनके काव्य-सौन्दर्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता है ।
महाकवि स्वयंभुदेव
महाकवि स्वयंभु अपभ्रंश- साहित्यके ऐसे कवि हैं, जिन्होंने लोकरुचिका सर्वाधिक ध्यान रखा है । स्वयंभुकी रचनाएँ अपभ्रंशकी आख्यानात्मक रचनाएँ हैं, जिनका प्रभाव उत्तरवर्ती समस्त कवियोंपर पड़ा है । काव्य
१. पुष्पदन्तका महापुराण, माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, ११५ ।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९५