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किसलय, बिम्बीफल और विद्रुम आदि केवल वर्णको अपेक्षा हो उसके ओष्ठके समान थे । रसको अपेक्षा तो अमृत भी निश्चय ही उसका शिष्य बन चुका था । नासिका, कर्ण, मुख, कटि भूला अति अपूर्व चित्रण किया है। सुव्रताकी भोहोंका निरूपण करता हुआ कवि कहता हैइमानालोधनगोचरां विधिविधाय सृष्टेः कलशापंणोत्सुकः ।
लिलेख वस्त्र तिलकामध्ययोयोमिषादोमिति मङ्गलाक्षरम् ॥२५५॥ इस निरवद्य सुन्दरीको बनाकर विघासा मानों सृष्टिके ऊपर कलशा रखना चाहता था। इसीलिये तो उसने तिलव से चिन्हित भौंहोंके बहाने उसके मुख पर 'ओम्' यह मंगलाक्षर लिखा था। इस प्रकार कविने प्रत्येक उत्प्रेक्षाको तर्कसंगत बनाया है ।
'धर्मशर्माभ्युदय' में श्रृंगार और शान्तरसका अपूर्व चित्रण हुआ है । कविने भाव सौंदर्य की व्यापक परिधि में कल्पना, अनुभूति, संवेग, भावना, स्थायी और संचारी भावोंका समावेश किया है। इसमें भावोंकी उमड़-घुमड़ है, पर सीमाका अतिक्रमण नहीं । वात्सल्यभावका चित्रण भी षष्ठ सगमें आया है। अलंकार-योजनाकी दृष्टिसे ७ २२, २०११०, ७४२, ११११२, १४/३६, १७७६ आदि में उपमा, ११४५ में उत्प्रेक्षा, ३।३० में अर्थान्तरन्यास, १७/८० में असंगति, ४/२० में उल्लेख, ४/२२ में तद्गुण, १०।१९ में भ्रान्तिमान्, २२६० में व्यतिरेक, १७/४५ में विरोधाभास और २।३० में परिसंख्या अलंकार वर्तमान हैं। अनुप्रास, यमक, लेखकी अपेक्षा ११वां और १९वां सगं प्रसिद्ध है । हरिचन्द्रने १९ वें सगमें एकाक्षर और द्वधक्षर चित्रकी योजना की है । १९१८५ में सर्वतोभद्र, १९५/९३ मुरजबन्ध, १९७८ में गोमूत्रिका, १९८४ में अर्द्धभ्रम, १९/९८ षोडषदल पद्मबन्ध एवं १९ १०१ में चक्रबन्ध आये हैं। निश्चयतः यह काव्य उदात्त शैली में लिखा गया है और इसमें उत्कृष्ट काव्य के सभी गुण विद्यमान हैं। इस काव्यके अन्तिम सर्गमें जैनाचार और जेनदर्शन के तत्त्व वर्णित हैं ।
वाग्भट्ट प्रथम
वाग्भट्टनाम के कई विद्वान् हुए हैं। 'अष्टांगहृदय' नामक आयुर्वेदग्रन्थके रचयिता एक वाग्भट्ट हो चुके हैं। पर इनका कोई काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जैन सिद्धान्त भवन आराकी विक्रम संवत् १७२७ की लिखी हुई प्रतिमें निम्न लिखित पद्य प्राप्त होता है
अहिच्छत्रपुरोत्पन्नप्राग्बाटकुलशालिनः ।
छाडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्भटः कविः ||८७
२२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा