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छन्दोंमें करिमकरभुजा (७।१०), दीपक (४।२२), पारण क (१२२), पडिया (१८), अलिल्लह (२६), सिंहावलोक (६६), बोटनक (४७), पादाकुलक {१२१), उर्वशी (३।४), सारीय (५।१४), स्रग्विणी (११९, ४।१६), मदनावतार (६:१०), त्रिपदी शंखनारी (४/५), सामानिका (९।१७), भुजंगप्रयात (४।२१), दिनमणि (७५), गाथा (९३१), उद्गाथा (७१), दोहा (४।१४), रत्नमालिका (२०१५) मणिशेखर (५।८) मालागाहो {७४}, दण्डक (४८) का प्रयोग कविने किया है । इस प्रकार महाकाव्यके सभी तत्त्व जंबुसामिचरिउमें पाये जाते हैं।
श्रीचन्द श्रीचन्दका नाम 'दंसणकहरयणकरंडु'में पंडित श्रीचन्द्र भी आया है। कविने अपना परिचय 'दंसणकहरयणकरंडु'के अन्सकी प्रशस्तिमें अंकिस किया है । कविने लिखा है
देशोगणपहाणु गुणगणहरु, अवइण्ण णावइ सई गणहरु ।
भब्वमणो-लि-दिणेसा, मिरिमिनि ति नित्ति गुणोस !! तासु सोसु पंडियचूडामणि, सिरिगंगेयपमह पउरावणि । xxx x धम्मुव रिसिवें जसरूवउ, सिरिसुयकित्तिणामु संभूयउ ।
सिरि चंदुज्जलजसु संजायज, णामे सहसकित्ति विक्खायउ ।
x सिरिचंदु णामु सोहण मुणोसु, संजायज पंडिउ पढम सीसु । तेणेउ अणेयच्छरियधामु, दसणकहरयणकरेंडुणामु ।
कारिंदहो रज्जेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि । बुहसिरिचदें एउ कउ गंदउ कव्वु जयम्मि॥
इस प्रशस्तिसे तथा कथाकोशकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्रके पूर्व तीन विशेषण प्राप्त होते हैं- कवि, मुनि और पंडित । श्रीचन्द मुनि थे और ग्रन्थ-रचना करनेसे वे कवि और पंडितकी उपाधिसे अलंकृत थे । श्रीचन्दने प्रशस्तियों में अपनी गरुपरम्परा निम्न प्रकार अंकित की है
श्रापार्यसुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३१