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अनन्त धर्मसमुच्चय विराट अनेकतारमात्म-सानसमें अनन्त लहरोंके समान तरंगित हो रहे हैं और उसमें अनन्त सप्तभंगियाँसमाहित हैं। वक्ता किसी धर्मविशेषको विवक्षावश मुख्य या गौणरूपमें ग्रहण करता है । इस प्रकार समन्तभद्रने सप्तभंगीका परिष्कृत प्रयोग कर अनेकान्तकी व्यवस्था प्रदर्शित की है। यथा
१. स्यात् सद्रूप ही तत्त्व है। २. स्यात् असद्रूप ही तत्त्व है। ३. स्यात् उभयरूप ही तत्व है। ४. स्यात् अनुभय ( अवक्तव्य) रूप ही तत्त्व है। ५. स्यात् सद् और अवक्तव्य रूप ही तत्त्व है। ६. स्यात् असद् और अक्क्तव्य रूप ही तत्त्व है। ७ स्यात् सद् और असद् तथा अवक्तरूप ही तत्त्व है ।'
इन सप्तभङ्गोंमें प्रथम भंग स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, द्वितीय परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, तृतीय दोनोंकी सम्मिलित अपेक्षाओंसे, चतुर्थ दोनों सत्त्व-असत्त्वको एक साथ कह न सकनेसे, पंचम प्रथम-चतुर्थके संयोगसे, षष्ठ द्वितीय-चतुर्थके मेलसे, सप्तम तृतीय-चतुर्थक सम्मिलित रूपसे विवक्षित हैं। प्रत्येक भंगका प्रयोजन पृथक्-पृथक् रूपमें अभीष्ट है । ___ समन्तभद्रने सदसके स्याद्वादके समान अद्वैत-द्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यवाद, अन्यता-अनन्यतावाद, अपेक्षा-अनपेक्षावाद, हेतु-अहेतुवाद, विशान-बहिरर्थवाद, देवपुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादपर भी विचार किया है। तथा सप्तभंगीकी योजना कर स्याद्वादको स्थापना को है। इस प्रकार समन्तभद्रने तत्त्वविचारको स्यादवाददृष्टि प्रदान कर विचारसंघर्षको समाप्त किया है। समन्तभद्रका अभिमत है कि तात्विक विचारणा अथवा आचार-व्यवहार, जो कुछ भी हो, सब अनेकान्तदष्टिके आधारपर किया जाना चाहिए। अतः समस्त आचार और विचारको नींव अनेकान्तदृष्टि ही है । यही दृष्टि वैयक्तिक और सामष्टिक समस्याओंके समाधानके लिए कुञ्जी है।
समन्तभद्रको सप्तभंगीका स्वरूप आचार्य कुन्द-कुन्दसे विरासतके रूपमें प्राप्त हुआ था । उन्होंने इस रूपको पर्याप्त विकसित और सुव्यवस्थित किया है। विचारसहिष्णुता और समता लानेका उनका यह प्रयत्न श्लाघनीय है। १. देवागम, वीर-सेवा-मन्दिरट्रस्ट प्रकाशन, डॉ० दरवारीलाल कोठिया द्वारा लिखित
प्रस्तावना पु० ४४ ।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३२९