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उत्पन्न नहीं हो सकती । आत्माके प्रदेशों में संकोच और विस्तार भी कर्मके निमित्तसे होता है । कर्म निमित्तके हटते ही आत्मा अपने अन्तिम खाकारमें रह जाती है और उर्ध्वलोकके अग्रभाग में स्थित हो अपने अनन्त चेतन्य में प्रतिष्ठित हो जाती है ।
श्रुतवराचार्योंने कर्मसिद्धान्तके इस प्रसंग में मध्यात्मवाद, तत्त्वज्ञान, अनेकान्तवाद, आचार आदिका भी विवेचन किया है । गुणस्थान, जीवसमास, मागंणा आदिकी अपेक्षासे कर्मबन्ध, जोवके भाव, उनकी शुद्धि - अशुद्धि, योगध्यान आदिका विवेचन किया है ।
नय-वादकी अपेक्षासे आत्माका निरूपण करते हुए निश्चयनयको अपेक्षा आत्माको शुद्ध चैतन्यभावोंका कर्त्ता और भोक्ता माना है । पर व्यवहारनयको अपेक्षासे यह आत्मा कर्मबन्धके कारण अशुद्ध है और राग-द्व ेष-मोहादि की कर्त्ता और तज्जन्य कर्मफलोंकी भोक्ता है । अतएव संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि श्रुतधराचार्यांने सिद्धान्त - साहित्यका प्रणयन कर तीर्थंकर महावीरकी ज्ञानज्योतिको अखण्ड और अक्षुण्ण बनाये रखनेका प्रयास किया है ।
द्वितीय परिच्छेद में सारस्वताचार्यों द्वारा की गयी श्रुतसेवाका प्रतिपादन किया गया है । सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख आचार्य समन्तभद्र है । इनके पश्चात् सिद्धसेन, पूज्यपाद, पात्रकेसरी, जोइन्दु, विमलसूरि, ऋषिपुत्र मानतुंग, रविषेण, जटासिह्नन्दि, एलाचार्य, वीरसेन, अकलंक, जिनसेन द्वितीय, विद्यानन्द, देवसेन, अमितगति प्रथम, अमितगति द्वितीय, अमृतचन्द्र, नेमिचन्द्र आदि आचार्योंने प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगकी रचना कर बाङ्मयको पल्लवित किया है। इन सारस्वताचार्योंने उत्पादादि- त्रिलक्षणपरिमाणवाद, अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद भाषा और आत्मद्रव्यकी स्वतन्त्र सत्ता इन चार मूल विषयोंपर विचार किया है।
दार्शनिक युग और स्याद्वाव
दार्शनिक युगके सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्रने सैद्धान्तिक एवं आगमिक परिभाषाओं और शब्दोंको दार्शनिक रूप प्रदान किया है । इन्होंने एकान्तवादोंकी आलोचनाके साथ-साथ अनेकान्तका स्थापन, स्याद्वादका लक्षण, सुनयदुर्नयकी व्याख्या और अनेकान्त में अनेकान्त लगाने की प्रक्रिया बतलायी है । प्रमाणका लक्षण 'स्वपरावभासक बुद्धि को बतलाया है। समन्तभद्रने बतलाया है कि तत्त्व अनेकान्तरूप हैं और अनेकान्त विरोधी दो धर्मोके युगलके आश्रयसे प्रकाशमें आनेवाले वस्तुगत सात धर्मोका समुच्चय हैं और ऐसे-ऐसे
३२८ : वीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा