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समन्तभद्रके पश्चात् सिद्धसेनने नए और अनेकान्तका गंभीर विशद एवं मौलिक विवेचन किया है । समन्तभद्रके प्रमाणके 'स्वपरावभासक लक्षण' में 'बाधविवर्जित" विशेषण देकर उसे विशेष समृद्ध किया । ज्ञानकी प्रमाणता और अप्रमाणताका आधार 'मेयनिश्चय' को माना ।
पात्रकेसरी और श्रीदत्तने क्रमश: 'त्रिलक्षणकदर्थन' एवं 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थोंकी रचना कर 'अन्यथानुपपन्नत्व' रूप हेतुलक्षण प्रतिष्ठित किया तथा वादका सांगोपांग निरूपण कर पर समयमीमांसा प्रस्तुत की ।
आचार्य अकलंकदेवने जैन न्यायशास्त्रको सुदृढ़ प्रतिष्ठा कर प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाये तथा प्रत्यक्षके मुख्यप्रत्यक्ष; सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद किये हैं । परोक्षप्रमाणके मेदोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमको बतलाया है। उत्तरकालिन आचार्योंने अकलंकद्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धतिको पल्लवित और पुष्पित किया है। अकलंकदेवने लवीयस्त्रयसवृत्ति, न्यायविनिश्चयसवृत्ति, सिद्धिविनिश्चयसवृत्ति और प्रमाणसंग्रहसवृत्ति इन मौलिक ग्रन्थोंकी रचना की है । तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टशती इनके टीकाग्रन्थ हैं । अकलंकने इन ग्रन्थोंमें प्रमाण और प्रमेयकी व्यवस्थामें पूर्ण सहयोग प्रदान किया है । द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त आदिका निरसन किया है। सुनय, दुर्नय, द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदिका स्वरूपविवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है | अकलंकके पश्चात् आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा जैसे जैन न्याय के मूर्धन्य ग्रन्थोंका प्रणयन कर जैनदर्शनको सुव्यवस्थित बनाया है । ज्ञेयको जानने-देखने, समझने और समझाने की दृष्टियोंका नय और सप्तभंगी द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है । विद्यानन्दने विभिन्न दार्शनकारों द्वारा स्वीकृत आप्तोंकी समीक्षा कर आप्तत्व एवं सर्वज्ञत्व की प्रतिष्ठा की है । इन्होंने सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञानकी प्रामाणिकताका भी विचार किया है । अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिसे निविकल्पको प्रमाण नहीं माना जा सकता । स्वलक्षणरूप परमाणुपदार्थं ज्ञानका विषय तभी बन सकता है जब स्थूल बाह्य पदार्थोंका अस्तित्व स्वीकार किया जाय । विद्यानन्दने
१. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं, बाधविवर्जितम् 1
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ॥
- न्यामावतार, सम्पादक डॉ० पी० एल० वैद्य, प्रकाशक जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस, बम्बई, सन् १९२८ कारिका 1
३३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा