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यह कृति मानव-हृदयको स्वार्थ-सम्बन्धोंकी संकीर्णतासे ऊपर उठाकर लोक कल्याणकी भावभूमिपर ले जाती है, जिससे मनीविकारोंका परिष्कर हो जाता है। कविने आरंभमें इष्टदेवको नमस्कार करनेके उपरान्त भक्ति एवं स्तुसिको आवश्यकता, मिथ्यात्व और सम्यक्त्वको महिमा, गृहवासका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःख, पुण्यपापकी महत्ता, धर्मको उपादेयता, शानीअज्ञानीका चिन्सन, आत्मानुभूतिको विशेषता, शुद्ध आस्मस्वरूप एवं नवतस्वस्वरूप आदिका सुन्दर विवेचन किया है। भवसागरसे पार होनेका कविने कितना सुन्दर उपाय बताया है
सोचत जात सबै दिन-रात, कछु न बसात कहा करिये जी । सोच निवार निजातम धारहु, राग-विरोध सबै हरिये जी । यौं कहिये जु कहा लहिये, सु बहे कहिये करुना धरिये जो। पावत मोख मिटावत दोष, सु यौं भवसागर को तरिये जी ॥ कविने इसी प्रन्यमें समताका महत्त्व बतलाते हुए कितने सुन्दर रूपमें कहा है-समदष्टि आत्मरूपका अनुभव करता है। उसे अपने अन्तसकी छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। अतः वह आध्यात्मिक समरसताका आस्वादन कर निश्चिन्त हो मासा है । कविने कहा है -
काहेको सोच कर मन भूरख, सोच करें कछ हाथ न ऐहै। पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निहचय अपनो रस देहै ।। ताहि निवारनको बलवन्त, तिहूँ जगमाहिं न कोउ लसे हैं।
ताते हि सोच तजो समता गहि, ज्यौं सुख होइ जिनंद कहे हैं । धर्मविलास' या धानतविलासके अतिरिक्त कविके अन्य दो ग्रन्थ और पाये जाते हैं । आममविलास तथा भेद-विज्ञान या आत्मानुभव । आगमविलासमें कविकी ४६ रचनाएं संकलित हैं। उनका संकलन उनकी मृत्युके पश्चात् पं० जगतराय द्वारा किया गया है। कहा जाता है कि द्यानतरायकी मृत्युके पश्चात् उनकी रचनाओंको उनके पुत्र लालजोने आलमगंजवासी किसी शाझ नामक व्यक्तिको दे दिया। पंडित जगतरायने वे रचनाएं नष्ट न हो जायें, इस आशयसे उन्हें एक गुटकेमें' संगृहीत कर दिया है
१. यह अन्य जैन रत्नाकर कार्यालय बम्बई द्वारा फरवरी १९१४ में प्रकाशित । २७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा