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'इत्याशाधर- विरचित-धर्मामृतनाम्नि सूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनो नामाष्टा
दशोऽध्यायः ।'
दृष्टि
हम ग्रन्थ ७२ प हैं और स्वात्मा, सुखात्मा श्रुतिमति, ध्याति, और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है । पश्चात् रत्नत्रयादि दूसरे विषयों का विवेचन किया है। वस्तुतः इस अध्यात्मरहस्यमें गुण-दोष, विचारस्मरण आदिकी शक्ति से सम्पन्न भावमन और द्रव्यमनका बड़ा ही विशद विवेचन किया है । यह योगाभ्यासियों और अध्यात्मप्रेमियोंके लिये उपयोगी है । धर्मामृत
आशाधरने धर्मामृत ग्रन्थ लिखा है, जिसके दो खण्ड हैं- अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामृत | अनगारधर्मामृत में मुनिधर्मका वर्णन आया है तथा मुनियोंके मूलगुण और उत्तरगुणों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। आशाघर विषयवस्तुके लिये मूलाचार के ऋणी हैं ।
सागारधर्मामृत में गृहस्थधर्मका निरूपण आठ अध्यायोंमें किया है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मके ग्रहणकी पात्रता बतलाकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत तथा सल्लेखनाके आचरणको सम्पूर्ण सागरघमं बतलाया है । उक्त १२ प्रकारके धर्मको पाक्षिक श्रावक अभ्यासरूपसे, नैष्ठिक आचरणरूपसे और साधक आत्मलीन होकर पालन करता है ।
आठ मूलगुणों का धारण, सप्त व्यसनोंका त्याग, देवपूजा, गुरूपासना और पात्रदान आदि क्रियाओंका आचरण करना पाक्षिक आधार है । घर्मका मूल अहिंसा और पापका मूल हिंसा है। अहिंसाका पालन करनेके लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्यका त्याग अपेक्षित है । रात्रिभोजनत्याग भी अहिंसा अन्तर्गत है ।
गृह-विरत श्रावक आरम्भिक हिंसाका पूर्ण त्याग करता है और गृह-रस श्रावक, संकल्पी हिंसाका सत्याणुव्रत, अचीर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाव्रतका धारण करना भी आवश्यक है। श्रावक गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन करता हुआ अपनी दिनचर्याको भी परिमार्जित करता है । वह एकादश प्रतिमाओं का पालन करता हुआ अंतमें सल्लेखना द्वारा प्राणोंका विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार धर्मामृतमें श्रमण और श्रावक दोनोंको चर्याओंका वर्णन किया है ।
जिनयज्ञकल्प
प्रतिष्ठा विधिका सम्यक् प्रतिपादन करनेके लिये बाशावरने छ: अध्यायोंमें जिनयज्ञकल्पविधिको समाप्त किया है। प्रथम अध्यायमें मन्दिरके योग्य भूमि,
४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा