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भोज-उदयादित्य-नरवर्मा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा या विजयवर्मा, सुभटवर्मा और अर्जुनवर्मा । अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उसके पीछे अजयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल और देवपालके पश्चात् उसका पुत्र जयतुंगिदेव (जयसिंह) राजा हुआ । ____ आशाधर जिस समय धारामें आये उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामृतको टीका लिखो तब जयतुंगिदेव राजा थे । इस प्रकार आशाधर धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। विन्ध्यवर्माके मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर लिखा
"आशाधरत्वं मयि विद्धि सिद्ध निसर्गसौन्दर्यमजर्यमार्य ।
सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थ परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥" इस प्रकार आशाधरका समय वि० को तेरहवीं शती निश्चित है। रचनाएं
आशापरने विपुस मस्जिदों शाहिलाका सृार किया है। मेरी कवि, व्याख्याता और मौलिक चिन्तक थे। अबतक उनकी निम्नलिखित रचनाओंके उल्लेख मिले हैं---
१. प्रमेयरलाकर, २. भरतेश्वराभ्युदय, ३. ज्ञानदीपिका, ४. राजीमतिविप्रलंभ, ५. अध्यात्मरहस्य, ६. मूलाराधनाटीका, ७. इष्टोपदेशटीका, ८. भूपालचतुर्विशतिकाटीका, ९. आराधनासारटीका, १०. अमरकीसटीका, ११. क्रिया-- कलाप, १२. काव्यालंकारटीका, १३. सहस्रनानस्तवन सटीक, १४. जिनयन कल्प सटीक, १५. विषष्टिस्मृतिशास्त्र, १६ नित्यमहोद्योत, १७, रत्नत्रयविधान, १८. अष्टांगहृद्योतिनीटीका, १९. सागारधर्मामृत सटीक और २०. अनगारधर्मामृत सटीक। अध्यात्मरहस्य
पं० आशापुरजीने अपने पिताके आदेशसे इस ग्रन्थकी रचना की। साथ ही यह भी बताया है कि यह शास्त्र प्रसन्न, गम्भीर और आरब्ध योगियोंके लिये प्रिय बस्तु है। योगसे सम्बद्ध रहने के कारण इसका दूसरा नाम योगोद्दीपन भी है। कविने लिखा है
"आदेशात् पितुरध्यात्म-रहस्यं नाम यो व्यधात् ।
शास्त्रं प्रसन्न गम्भीर-प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥" अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४५