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अर्थात् स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकरनामका न्यायग्रन्थ, जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, आशाधरके हृदय-सरोवरसे प्रवाहित हुआ । भरतेश्वराभ्युदयनामक उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सके अन्त में 'सिद्ध' शब्द आया है, जो तीनों विद्याओंके जानकार कवीन्द्रोंको आनन्द देनेवाला है और स्वोपज्ञटीकासे प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त 'धर्मामृत' शास्त्र, वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृद्रयोद्योतिनी टीका रची । मूलाराघना और इष्टोपदेशपर भी टीकाएँ लिखीं। अमरकोशपर क्रियाकलापनामक टीका बनायी। आराधनासार और भूपालचतुर्विंशतिका आदि की टोकाएँ भी लिखीं। वि० सं० १२८५ के पूर्व रचे हुए ग्रन्थों की तालिका जिनयज्ञकल्पको प्रशस्तिमें पाई जाती है। इसके पश्चात् वि० सं० १२८६ से १२९६ तकके मध्य में रचे गये ग्रन्थोंका उल्लेख सागारधर्मामृतकी टीकामें पाया जाता है । १२९६ के अनन्तर जो ग्रन्थ रचे, उनका निर्देश अनागरधर्मामृतटीकामें पाया जाता है। इस टीका में राजीमतिविप्रलंभनामक खण्डकाव्य, अध्यात्म रहस्य और रत्नत्रयविधान इन तीन प्रत्योंका निर्देश मिलता है ।
आशाधर के समय की पुष्टि अर्जुनवर्मदेव के दानपत्रोंसे भी होती है । अर्जुनचर्मदेव के तीन दानमात्र प्राप्त हुए हैं - १. वि० सं० १२६७ का २. वि० सं० १२७० का, ३. वि० सं० १२७२ का। इसके पश्चात् अर्जुनदेव के पुत्र 'देवपालदेवके राज्यत्वकालका एक अभिलेख हरसोदामें मिला है, जो वि० सं० १२७५ का है। इससे ज्ञात होता है कि १२७२ और १२७५ के बीचमें अर्जुनदेव के राज्यका अन्त हो चुका था । अजुनदेवके राज्यका प्रारम्भ वि० सं० १२६७ के कुछ पहले हुआ है । वि० सं० १२५० में जब आशाधर धारामें आये थे तब विन्ध्यवर्माका राज्य था, क्योंकि विन्ध्यवर्मा मन्त्री विद्यापति बिल्हणने आशाचरकी विद्वत्ताकी प्रशंसा की है। यदि आशाधरके विद्याभ्यासकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो विन्ध्यवर्माका राज्य वि० सं० १२५७-५८ तक रहता है । विन्ध्यदर्माके पश्चात् सुभटवर्माका राज्यकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो अर्जुनदेवके राज्यकालका समय वि० सं० १२६५ आता है। इसी समयके आशाधर नलकच्छमें आये होंगे !
लगभग
पिप्पलियाके अर्जुनदेवके दानपत्रमें उनकी कुलपरम्परा निम्न प्रकार आई है
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१. बंगाल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल, जिल्द ५ पृ० ३७८ तथा भाग ७, पृ० २५ गौर ३२ ।
४४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा