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मूर्ति निर्माण के लिये शुभ पाषाण, प्रतिष्ठायोग्य मूर्ति, प्रतिष्ठाचार्य, दीक्षागुरु यजमान, मण्डप विधि, जलयात्रा, यागमण्डल- उद्धार आदि विषयोंका वर्णन है । द्वितीय अध्यागमें तीर्थजल लानेको विधि, पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अन्य देवपूजा, जिनयज्ञादिविधि, सकलीकरणक्रिया, यज्ञदोक्षाविधि, मण्डपप्रतिष्ठाविधि और वेदी प्रतिष्ठा विधि बर्णित है । तृतीय अध्यायमें यागमण्डलको पूजाविधि और यागमण्डल में पूज्य देवोंका कथन किया है ।
चतुर्थ अध्याय में प्रतिष्ठेय प्रतिमाका स्वरूप अहंन्तप्रतिमा की प्रतिष्ठाविधि, गर्भकल्याणक की क्रियाओंके अनन्तर जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, नेत्रीन्मीलन, केवलज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणककी विधियोंका वर्णन आया है ।
पञ्चम अध्याय में अभिषेक-विधि, विसर्जन विधि, जिनालय - प्रदक्षिणा पुण्याहवाचन, ध्वजारोहण विधि एवं प्रतिष्ठाफलका कथन आया है । षष्ठ अध्याय में सिद्ध प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि बृहदसिद्धचक और लघुसिद्धचक्रका उद्धार, आचार्य प्रतिष्ठा विधि, श्रुतदेवता प्रतिष्ठा विधि एवं यक्षादिकी प्रतिष्ठा विधिका वर्णन है । षष्ठ अध्यायके अन्त में ग्रन्थकर्ताको प्रशस्ति अंकित है । परिशिष्ट में श्रुतपूजा, गुरुपूजा आदि संगृहोत हैं । त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र
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इस ग्रन्थमें ६३ शलाका-पुरुषों का संक्षिप्त जीवन-परिचय आया है । ४० पद्यों में तीर्थंकर ऋषभदेवका ७ पद्यों में अजितनाथका ३ पद्योंमें संभवनाथका ३ पद्यों में अभिनन्दनका, ३ में सुमतिनाथका, ३ में पद्मप्रभका, ३ में सुपाद जिनका १० में चन्द्रप्रभका, ३ में पुष्पदन्तका, ४ में शीतलनाथका, १० में श्रेयांस तीर्थंकरका, ९ में वासपूज्यका १६ में विमलनाथका १० में अनन्तनाथका १७ में बर्मनाथका २१ में शान्तिनाथका ४ में कुन्थुनाथका २६ में अरनाथका १४ में मल्लिनाथका और ११ में मुनिसुव्रतका जीवनवृत्त वर्णित है । इसी संदर्भमें राम-लक्ष्मणकी कथा भी ८१ पद्योंमें वर्णित है । तदनन्तर २१ पद्योंमें कृष्ण-बलराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदिके जीवनवृत्त आये हैं। नेमिनाथका जीवनवृत्त भी १०१ पद्यों में श्रीकृष्ण आदिके साथ वर्णित है । अनन्तर ३२ पद्योंमें पाश्र्वनाथका जीवन अंकित किया गया है । पश्चात् ५२ पद्योंसे महावीर-पुराणका अंकन है । तीर्थंकरोंके काल में होनेवाले चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदिका भी कथन आया है | ग्रन्थके अन्त में १५ पद्योंमें प्रशस्ति अंकित है । ग्रन्थ-रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है—
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नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमि चैत्यालयेऽसिवत् । ग्रन्थोऽयं द्विनद्वयेक विकमार्कसमात्यये ||१३||
अर्थात् वि० सं० १२९१ में इस ग्रंथको रचना की है।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४७