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________________ महाकवि अईहास संस्कृत गद्य और पद्यके निर्माताके रूपमें यहाकवि भईहाम अद्वितीय हैं । मुनिसुवतकाव्य, पुरदेवचंपू और भव्यजनकंठाभरणको प्रशस्तियोंसे यह स्पष्ट है कि महाकवि अहंदास प्रतिभाशाली विद्वान थे। कविने इन ग्रंथोंकी प्रश. स्तियोंमें आशाधरका नाम बड़े आदरके साथ लिया है। अतः यह अनुमान लगाना सहज है कि इनके गुरु आशाधर थे। मुनिसुव्रतकान्यके एक पद्यसे यह ध्वनित होता है कि अहंदास पहले कुमार्ग में पड़े हुए थे, पर आशाषरके धर्मामृतके अध्ययनसे उनके परिणामोंमें परिवर्तन हुआ और वे जैनधर्मानुयायी हो गये । बताया है--- धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् । स्यक्त्वा श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् ।। सबर्मामृतमुदघृतं जिनवचःक्षीरोदधेरादरात् । पार्य पायमितश्रम: सुखपदं दासो भवाम्यहंतः ।।१०।६४ x अहंद्दासः सभक्त्युल्लसितमवसितं भूघरे तत्र कृत्वा । कल्याणं तीर्थकर्तुः सुरकुलमहितः प्रापदात्मीयलोकम् ।। अर्हदासोऽयमित्थं जिनपतिचरितं गौतमस्वाम्युपज्ञं । गुम्फित्या काव्यबन्धं कविकुलमाहितः प्रापदुच्चैः प्रमोदम् ॥१०१६३ अर्थात् कुमार्गासे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक उत्तम सन्मार्ग था, उसे छोड़कर बहुत्तकाल तक भटकता हआ में अत्यन्त थक गया । किसी प्रकार काललब्धि वश से प्राप्त किया। उस सन्मार्गको पाकर जिनवचनरूपी क्षीरसमुद्रसे उद्धृत किये और सुखके स्थान समीचीन धर्मामृतको आदरपूर्वक पी-पीकर थकान रहित होता हुआ मैं अर्हन्त भगवानका दास होता हूँ। देवताओंसे पूजित सथा अहंदु भगवानके दास इन्द्रदेव उस सम्मेदपर्वत पर तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रतनाथका मोक्षकल्याणक सम्पन्न कर सानन्द अपने स्वर्गलोकको लौट आये तथा कविकुलपूजित अहंद्दासने भी गौतम स्वामीसे कहे गये श्रीजिनेन्द्रचरितको काव्यरूपमें अथित कर बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त की। उपर्युक्त ६४वें पद्यमें आया हुआ 'धर्मामृत' पद आशाधरके 'धर्मामृत' ग्रन्थका सूचक है । इस पद्यसे यह अवगत होता है कि अहंद्दास पहले कुमार्गमें पड़े ४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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