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कर रहा था । इससे ज्ञात होता है कि डोंगर सिंहका राज्यकाल वि० सं० १४८२-१५११ है | अतः 'सम्मइजिणचरिउ' की रचना भी इसी समय हुई होगी ।
वि० सं० १४२७ का एक मूर्तिलेख उपलब्ध है, जिसमें कवि रइधूको प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है। 'सुक्कोसलचरिउ' के पूर्व कचि 'रिट्ठणमिचरिउ', 'पासणाहचरिउ', 'बलहद्दचरिउ', 'तेसट्ठिमहापुरिसचरिउ', 'मेहेसर चरिउ', 'जसहचरिङ', 'वित्तसार', 'जीबंधर चरिउ', 'साबयचरिउ' और 'महापुराण' की रचना कर चुका था ।
महाकवि रहने 'धष्णकुमारचरिउ' की रचना गुरु गुणकीर्ति भट्टारकके आदेश से की हैं और गुणकीर्तिका समय अनुमानतः वि० सं० १४५७ - १४८६ के मध्य है । कवि महिंदुने अपने 'संतिणाहचरिउ' में अपने पूर्ववर्ती कवियोंके साथ रइधूका भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध है कि रइधू वि० सं० १९८७ के पूर्व ख्यात हो चुके थे ।
श्री डॉ० राजाराम जैनने रइधू- साहित्य के अध्ययन के आधारपर निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किये हैं
१. महाकवि रइधूने भट्टारक गुणकीतिको अपना गुरु माना है । पद्मनाभ कायस्थने भी राजा वीरमदेव तोमर के मंत्री कुशराजके लिये भट्टारक गुणकोतिके आदेशोपदेशसे 'दयासुन्दरकाव्य' ( यशोधरचरित ) लिखा था । वीरमदेव तोमरका समय वि० सं० १४५७ १४७६ है | अतः गुणकीत्तिका भी प्रारंभिक काल उसे माना जा सकता है। अतः वि० सं० १४५७ रइधूके रचनाकालकी पूर्वावधि सिद्ध होती है ।
२. रइधूने कमलकीत्तिके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र तथा डूंगरसिंह के पुत्र राजा कीर्तिसिंह कालको घटनाओंके बाद अन्य किसी भी राजा या भट्टारक अथवा अन्य किसी भी घटनाका उल्लेख नहीं किया, जिससे विदित होता है कि उक्त भट्टारक एवं राजा कीर्तिसिंहका समय ही रइबूका साहित्यिक अथवा जीवनका अन्तिम काल रहा होगा । राजा कीर्तिसिंह सम्बन्धी अन्तिम उल्लेख वि० सं० १५३६ का प्राप्त होता है । अतः यही रद्दधुकालकी उत्तरावधि स्थिर होती है।
इस प्रकार रधूका रचनाकाल वि० सं० १४५७ - १५३६ सिद्ध होता है ।
१. सम्मइ ०१ । ३ । ९ - १० ।
२.
महाकवि
और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, सन् १९७२, पृष्ठ १२० ।
२०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
के साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, प्रकाशक प्राकृत जैन शास्त्र