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और माताका नाम वोरिका देवी था। इनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम मंगलदासे था | ये दोनों भाई ब्रह्मचारी थे। ब्रह्म कृष्णदासने मुनिसुव्रतपुराणकी प्रशस्तिमें रामसेन भट्टारककी परम्परामें हुए अनेक मट्टारकोंका स्मरण किया है । ब्रह्म कृष्णदास काष्ठासंघके भट्टारक भुवनकीर्त्तिके पट्टधर भट्टारक रत्नकीर्त्तिके शिष्य थे । भट्टारक रत्नकीर्ति न्याय, नाटक और पुराणादिके विज्ञ थे । ब्रह्म कृष्णदासका व्यक्तित्व आत्म-साधना और ग्रन्थ-रचनाको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है ।
स्थितिकाल
ब्रह्म कृष्णदासने अपनी रचना मुनिसुव्रतपुराणमें उसके रचनाकालका निर्देश किया है। बताया है कि कल्पबल्ली नगरमें वि० सं० १६८१ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशीके दिन अपरा समय में ग्रन्थ पूर्ण हुआ । लिखा है
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'इन्द्रष्टट्चन्द्रमतेऽथ वर्षे (१६८१) श्रीकात्र्तिकारव्ये धवले व पक्षे । जीये त्रयोदश्यपरान्हया मे कृष्णेन सौख्याय विनिर्मितोऽयं ॥९६॥ लोहपत्तननिवासमहेभ्यो हर्ष एवं वाणिजामिन हर्षः । सत्सुतः कविविधिः कमनीयो भाति मंगलसहोदरकृष्णः ॥९७॥ श्री कल्पवल्लीनगरे गरिष्ठे श्रीब्रहाचारीश्वर एष कृष्णः । कंठावलंब्यूज्जितपूरमल्लः प्रवर्द्धमानो हितमा [स] तान ||१८|| इन प्रशस्ति-पद्योंमें कविने अपनेको ब्रह्मचारी भी कहा है तथा इनके आधार पर कविका समय वि० की १७वीं शती है ।
रचना
मुनिसुव्रतपुराण में कविने २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतका जीवन अंकित किया है । इसमें २३ सन्धि या सगँ हैं । और ३०२५ पद्य हैं। यह रचना काव्यगुणोंकी दृष्टिसे भी अच्छी है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक अर्थान्तरन्यास, विभाचना आदि अलंकारों का प्रयोग पाया जाता है। इसकी प्रति जयपुरमें सुरक्षित है ।
अभिनव चारुकीर्ति पंडिताचार्य
अभिनव चारुकीति पंडिताचार्य द्वारा विरचित 'प्रमेयरत्नालंकार' नामक प्रमेय रत्नमालाको टीका प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ के प्रत्येक परिच्छेद के अन्तमें निम्नलिखित पुष्पिकावाक्य उपलब्ध होता है
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८५