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मणि'में जीवन्धरचरित मिलता है, वह 'क्षत्र-चूड़ामणि'से प्रभावित है। इस आधार पर कवि हरिवनका प्रमय १८ नो मतान्दोके जामा होना चाहिये। __ महाकवि असग द्वारा विरचित 'वर्द्धमानचरितम् के अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि कविने कई सन्दर्भ और उत्प्रेक्षाएं जीवन्ध रचम्पू, धर्मशर्माभ्युदय और चन्द्रप्रभचरितसे ग्रहण की हैं । उक्त काव्यग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह सहजमें ही स्पष्ट हो जाता है कि हरिचन्द्रने असगका अनुकरण नहीं किया, बल्कि महाकवि असगने हो हरिचन्द्रका अनुकरण किया है। यथा
प्रथिता विभाति नगरी गरीयसी धुरि यत्र रम्यसुदतीमुखाम्बुजम् । कुरुविन्दकुण्डलविभाविभापितं प्रविलोक्य कोपमिव मन्यते जनः ।।
जीवन्धर०, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ६२५ यत्रोल्लसत्कुण्डलपरागच्छायावतंसारुणिताननेन्दुः । प्रसाद्यते किं कुपितेति कान्ता प्रियेण कामाकुलितो हि मढ़ः ॥
वर्धमानचरितम्, सोलापुर, ई० १५३१, श२६ सोदामिनीव जलदं नवमजरीव चूतद्रुमं कुसुमसंपदिवाद्यमासम् । ज्योत्स्नेव चन्द्रमसमच्छविमेव सूर्य तं भूमिपालकमभूषयदायताक्षी॥
जीवन्धरचम्पू ।२७ विद्युल्लतेवाभिनवाम्बुवाई चुतद्रुमं नूतनमन्जरीव । स्फुरत्प्रभेवामलपद्मरागं विभूषयामास तमायताक्षी ।
वर्धमानचरितम् ११४ हरिचन्द्रने धर्मशर्माभ्युदयके दशम सर्गमें विन्ध्यगिरिको प्राकृतिक सुषमाका वर्णन किया है । महाकवि असगने इस सन्दर्भके समान ही उत्प्रेक्षाओंद्वारा विजयाद्धका वर्णन किया है । अत: वर्द्धमानचरितके रचयिता असगने हरिचन्द्रका अनुसरण कर अपने काव्यको लिखा है। इसी प्रकार 'नेमिनिर्वाण' काव्यके रचयिता वाग्भट्टने भी 'धर्मशर्माभ्युदय'का अनेक स्थानोंपर अनुसरण किया है। 'धर्मशर्माभ्युदय'के पञ्चम सर्गका नेमिनिर्वाणके द्वितीय सर्गपर पूरा प्रभाव है । असगका समय ई० सन् ९८८ है । अतः हरिचन्द्रका समय इनके पूर्व मानना चाहिये।
श्रीमती स्वप्ना' बनर्जीने धर्मशर्माभ्युदयकी हस्तलिखित प्रतिके लेखक विशालकीति और शब्दार्णवचन्द्रिकामें आये हुए बिशालकोतिको एक मानकर हरिचन्दका समय १२वीं शतीका अन्तिम पाद सिद्ध किया है। पर धर्मशर्माभ्युदयके अन्तरंग अनुशीलनसे हरिचन्द्रका समय ई० सन्की १०वीं शती है। १. मरु घरफेसरी-अभिनन्दन-ग्रन्थ, जोधपुर, पृ० ३१५ ।
आचार्यसुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९