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प्रो० दरबारीलालजी कोठिया' नवम शती मानते हैं । अतः श्रीहिण्डोकी द्वारा निर्णीत समय भी निविवाद नहीं है ।
धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पूके आन्तरिक परीक्षण करनेपर कुछ तथ्य इस प्रकार उपलब्ध होते हैं जिनके आधार पर महाकवि हरिचन्द्र के समयका निर्णय किया जा सकता है। धर्मशर्मा
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प्रयोग आया है । इस शब्दका प्रयोग वाणभट्टने भी हर्षचरितके प्रथम उच्छ्वासमें किया है। 'नेषधचरित' में हंस दमयन्तीसे कहता है—सुन्दरी ! अकेला चन्द्रमा तुम्हारे नयनोंको किसी प्रकार तृप्ति नहीं दे सकता । अतः नलके मुखचन्द्रके साथ वह तुम्हारे लोचनोंका आसेचनक' बने । स्पष्ट है कि 'मासेचनक' शब्द हर्षचरितसे विकसित होकर धर्मशर्माभ्युदयमें आया और वहाँसे नेषधमें गया । नैषधमहाकाव्यपर धर्मशर्माभ्युदयका और भी कई तरहका प्रभाव है |
'धर्मशर्माभ्युदय' का नाम सम्भवतः पाश्वभ्युदय के अनुकरण पर रखा गया होगा। संस्कृत काव्यों में अभ्युदयनामान्तवाले काव्यों में सम्भवतः जिनसेनका पाश्वभ्युदय सबसे प्राचीन है । ९वीं शतीके महाकवि शिवस्वामीका 'कप्फिणाभ्युदय " महाकाव्य है, जिसका कथानक बौद्धोंके अवदानोंसे ग्रहण किया गया है । १३वीं शती में दाक्षिणात्य कवि वेंकटनाथ वेदान्तदेशिकने २४ सगं प्रमाण 'यादवाभ्युदय' महाकाव्य लिखा है। जिसपर अप्पय दीक्षितने (ई० १६००) एक विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। महाकवि आशाघरने 'भरतेश्वराभ्युदय' नामक काव्य लिखा है | अतः यह निष्कर्ष निकालना दूरकी कौड़ी बैठाना नहीं है कि पाश्वभ्युदय के अनुकरण पर महाकवि हरिचन्द्रने अपने इस महाकाव्यका नामकरण किया हो ।
महाकवि हरिचन्द्र के समय निर्णय के लिये एक अन्य प्रमाण यह भी ग्रहण किया जा सकता है कि जीवन्धरचम्पूकी कथावस्तु कविने 'क्षत्रचूडामणि' से ग्रहण की है। श्रीकुप्पुस्वामीने अपना अभिमत प्रकट किया है कि 'जीवकचिन्ता
१. स्याद्वादसिद्धि, माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, सन् १९५० ई०, प्रस्तावना, पृ० २५-२७ । २. आसेचनक- दर्शनं नप्तारम् – हर्षचरित, चौखम्बा संस्करण, प्रथम उच्छ्वास । ३. नैषधमहाकाव्य, चौखम्बा संस्करण, ३११ ।
४. नैषधपरिशीलन, डॉ० चण्डीप्रसाद शुक्ल द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध
हिन्दुस्तानी
ऐकेडमी, इलाहाबाद, सन् १९६० ई० ।
५. पंजाब विश्वविद्यालय सीरीज, संख्या २६, ई० सन् १९३७में लाहोरसे प्रकाशित । ६. संस्कृत-साहित्यका इतिहास वाचस्पति, गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी,
१९६०, पृ० ८६८ ।
१८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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