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श्रेयोऽर्थं फामनीयैः प्रमुदितमनसा दानमानासनाद्यैः । स्वोपज्ञा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हेमचन्द्र ||३८|| - लाटी संहिता ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति, पद्य ३८
इस पद्यसे ग्रन्थकर्ता सम्बन्ध में इतना ही अवगत होता है कि वे हेमचन्द्रकी आम्नायके एक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्नचित्त होकर लाटीसंहिताकी रचना की थी। यहाँ जिन हेमचन्द्रका निर्देश आया है वे काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र हैं, जो माथुरगच्छपुष्करगणान्वयी भट्टारक कुमारसेन के पट्टशिष्य तथा पद्मनन्दि भट्टारकके पट्टगुरु थे, जिनकी कविने लाटीसहिता के प्रथमसर्ग में बहुत प्रशंसा की है। बताया है। कि वे भट्टारकोंके राजा थे । काव्यसंघरूपी आकाशमं मिथ्यायकारको दूर करनेवाले सूर्य थे और उनके नामकी स्मृतिमात्रसे दूसरे आचार्य निस्तेज हो जाते थे ।
इन्हीं भट्टारक हेमचन्द्र की आम्नायमें ताल्हू विद्वान्को भी सूचित किया गया है । इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि कवि राजमल्ल काष्ठासंधी विद्वान् थे । इन्होंने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिष्य न लिखकर आम्नायी बसाया है । और फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्न होकर लाटीसंहिता के लिखने को सूचना दो हैं | इससे यह स्पष्ट है कि राजमल्ल मुनि नहीं थे । वे गृहस्थाचायें या ब्रह्मचारी रहे होंगे ।
राजमल्लका काव्य अध्यात्मशास्त्र, प्रथमानुयोग और चरणानुयोगपर आवृत है । 'जम्बूस्वामी चरित' में कविने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि में पदमें तो सबसे छोटा हूँ ही, वय और ज्ञान आदि गुणोंमें भी सबसे छोटा हूँ
'सर्वेभ्योऽपि लघीयांश्व केवलं न क्रमादिह ।
वयसोऽपि लघुर्बुद्धा गुणैर्ज्ञानादिभिस्तथा ॥ १॥ १३४ ॥ ।' -- जम्बूस्वामोचरित १११२४|
स्थितिकाल
कवि राजमल्लने लाटी संहिताकी समाप्ति वि० सं० १६४१ में आश्विन दशमी रविवार के दिन को है। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
(श्री) नृपतिविक्रमादित्य राज्ये परिणते सहैकचत्वारिंशद्धि रब्दानां
सति । शतषोडश ||२||
छाचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ७७