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आभाका चित्रण किया है। द्वितीय पामें हाके अग्रभागमें धारण किये गये करवाल में योद्धाओं को रोषपूर्ण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है । इस कल्पनाको भी कविने चमत्कृत रूप में ग्रहण किया है । इस प्रकार जम्बूस्वामीचरित में विम्बों, प्रतीकों, अलंकारों और रसभावोंकी सुन्दर योजना की गई है । एकादश सगमें सूक्तियोंका सुन्दर समावेश हुआ है ।
लाटी संहिता -लाटी संहिता की रचना कविने वैराट नगर के जिनालय में की है । यह नगर जयपुरसे ४० मीलकी दूरी पर स्थित है। किसी समय यह विराट मत्स्यदेशको राजधानी था। इस नगरकी समृद्धि इतनी अधिक थी कि यहाँ कोई दोन-दरिद्री दिखाई नहीं पड़ता । अकबर बादशाहका उस समय राज्य था । और वहो इस नगरका स्वामी तथा भोक्ता था। जिस जिनालय में बैठकर कविने इस ग्रन्थको रचना की है वह साधु दूदाके ज्येष्ठ पुत्र और फामन के बड़े भाई ' न्योता'ने निर्माण कराया था । इस संहिताग्रंथ की रचना करनेकी प्रेरणा देने वाले साहू फामनके वंशका विस्तार सहित वर्णन है । और उससे फामन के समस्त परिवारका परिचय प्राप्त हो जाता है। साथ ही यह भो मालूम होता है कि वे लोग बहुत वैभवशाली और प्रभावशाली थे। इनकी पूर्वनिवासभूमि 'डीकनि' नामको नगरी थो । और ये काष्ठासंघी भट्टारकोंकी उस गद्दीको मानते थे, जिसपर क्रमशः कुमारसेन, हेमचन्द्र, पद्मनन्दि, यशः कीर्ति और क्षेमकीति नामके भट्टारक प्रतिष्ठित हुए थे । क्ष ेमकोतिभट्टारक उस समय वर्तमान थे और उनके उपदेश तथा आदेशसे उक्त जिनालय में कितने ही चित्रोंकी रचना हुई थी । इस प्रकार कवि राजमल्लने वेराटनगर, अकबर बादशाह काष्ठासंघो भट्टारक बश, फामन कुटुम्ब, फामन एवं वैराट जिनालयका गुणगान किया है। लाटासंहितामें श्रावकाचारका वर्णन है और इसे ७ सर्गों में विभक्त किया गया है । प्रथम सर्ग में ८७ पद्य हैं और कथा मुखभाग वर्णित है । द्वितीय सर्ग में अष्टमूलगुणका पालन और सहाव्यसनत्यागका वर्णन आया है । इस सर्ग में २१९ पच है। तृतीय सर्ग में सम्यग्दर्शनका सामान्यलक्षण वर्णित है और चतुर्थ सर्ग में सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप निरूपित है और इसमें ३२२ पद्य हैं । पञ्चम सर्ग में २७३ पद्मों में सहसा के त्यागरूप प्रथमाणुञ्जतका वर्णन किया गया है। षष्ट सगं में सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रतका २०६ पद्योंमें कथन किया गया है। इसी अध्यायमें गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का भी अतिचार सहित वर्णन आया है । सप्तम अध्याय में सामायिक आदि प्रतिमाओंका वर्णन आया है । अन्तमें ४० पद्य प्रमाण ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति दी गई है । पर इस प्रशस्ति में कविका परिचय अंकित नहीं है ।
८०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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