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'अध्यात्मकमलमासंग'-छोटी-सी रचना है और उसमें अध्यात्म-विषयका कथन आया है। अध्यात्मशास्त्रका अर्थ है परोपाधिके बिना मूलवस्तुका निर्देश करना अध्यात्मरूपी कमलको विकसित करनेके लिए यह कृति सर्यके समान है। इसपर 'समयसार' आदि ग्रंथोंका प्रभाव है। इस ग्रंथमें ४ अध्याय और १०१ का है। प्रथम घणय किया और बडार दोनों प्रकारके रत्नत्रयका, दूसरे अध्याय में जीवादि सप्ततत्वोंके प्रसंगसे, द्रव्य, गुण और पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और नौव्यका; तीसरे अध्यायमें जीवादि छः द्रव्योंका और चौथे अध्यायमें आस्रव आदि शेष तत्त्वोंका निरूपण किया है।
पिङ्गलशास्त्र-इसमें छन्दशास्त्रके नियम, छन्दोंके लक्षण और उनके उदाहरण आये हैं। इसकी रचना भूपाल भारमल्लके निमित्तसे हुई है। ये श्रीपाल जातिके प्रमुखपुरुष वणिकसंघके अधिपति और नागौरी तपागच्छ आम्नायके थे । इनके समय में इस पट्ट पर हर्षकोत्ति अधिष्ठित थे। इसकी रचना नागौरमें हई है । ऐसा अनुमान होता है कि कवि आगरासे नागौर चला गया था। भूपाल भारमल्ल भी वहींके रहनेवाले थे। ____पश्चाध्यायी–यह ग्रंथ अपूर्ण है। फिर भी जैनसिद्धान्तको हृदयंगत करने. के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। जिस प्रकार अन्य ग्रंथोंके निर्माणका हेतु है उसी प्रकार पञ्चाध्यायीके निर्माणका भी कोई हेतु होना चाहिए । इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रंथकी रचना कविने दीर्घकालीन अभ्यास, मनन और अनुभवके बाद की है । मंगलाचरण प्रवचनसारके आधारपर किया गया है ।
इस ग्रंथके दो ही अध्याय उपलब्ध होते हैं। प्रथम अध्यायमें सत्ताका स्वरूप, द्रव्यके अंशविभाग, द्रव्य और गुणोंका विचार, प्रत्येक द्रव्यमें संभव गुणोंका कथन, अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्यायोंका विशेष वर्णन, गुण, गुणांश, द्रव्य और द्रव्यांशका निरूपण भी पाया जाता है । द्रष्यके विविध लक्षणोंका समन्वय करने के पश्चात् गुण, गुणोंका नित्यत्व, मेद, पर्याय, अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुविचार, सत् पदार्थ, नयोंके भेद, नयाभास, जीवनव्य और उसके साथ संलग्न कर्मसंस्कारका भी कथन किया गया। दूसरे अध्यायमें सामान्यविशेषात्मक वस्तुसिद्धिके पश्चात् अमूर्त पदार्थों की सिद्धि और द्रव्योंकी क्रियावती और भाववत्तो शक्तियोंका भी कथन आया है । स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्तियोंके विचारके पश्चात् जीवतत्त्व, चेतना, ज्ञानीका स्वरूप, ज्ञानीके चिह्न, सम्यग्दर्शनका लक्षण, उसके प्रशमादि भेद, सप्तमय, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, तीन मूढ़ता आदिका भी निरूपण आया है। इसी अध्यायमें औदयिकमावोंका स्वरूप, ज्ञानावरणादि कोका
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८१