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विचार, मिथ्यात्व आदि पर प्रकाश डाला गया है । जैन दर्शनको प्रमुख बातोंकी जानकारी इस अकेले ग्रंथसे ही संभव है।
इस प्रकार राजमल्लने उपयोगी कृतियोंका निर्माण कर श्रुतपरम्पराके विकासमें योग दिया है । काव्य प्रतिभाकी दृष्टि से भी राजमल्ल कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
पग्रसुन्दर वि० सं०की १७वीं शसी में पद्मसुन्दर नामके अच्छे संस्कृत-कवि हुए हैं। पं० पद्मसुन्दर आनन्दमेरुके प्रशिष्य और पं० पद्ममेरुके शिष्य थे । कविने स्वयं अपनेको और अपने मुरुको पंडित लिम्बा है। इससे यह अनुमान होता है कि पं० पासुन्दर गद्दीघर भट्टारकके पाण्डेय या पंडित शिष्य रहे होंगे । भट्टारकोंको गधियों पर कुछ पंडित शिष्य रहते थे, जो अपने गुरु भट्टारकको मृत्युके पश्चात् मट्टारकपद सो प्राप्त नहीं करते थे। पर वे स्वयं अपनी पंडिसपरम्परा चलाने रूपये । बोर उनोसयास् उनके लिय-प्रतिक्षिय पंडित कहलाते थे।
मालुम्बरले 'भविन्यसपरित' की रचना की है । और इस ग्रंथके मास. में जो प्रशस्ति अंकित की गई है उसमें काष्ठासंघ, माथुरान्वय और पुष्करगमके भट्टारकों की परम्परा भी मंकित है । कविके आश्रयदाता और ग्रंथ रखनेकी प्रेरणा करनेवाले साहू रावल इन्हीं भट्टारकोंको आम्नायके थे।
ग्रंग रचोकी प्रेरणा सहें परस्थावर' में उस समयके प्रसिद्ध पनी साहू राबमल्लको प्रार्थनाले प्राप्त हुई थी। यह 'चरस्थावर' मुजफ्फरनगर जिलेका बतं. भान 'चरथावल' नान पड़ता है।
साहू रायमाल गोयलगोत्रीय अग्रवाल थे। इनके पुर्नज छाजू चौधरी देशविसमें शिल्पास इनके पांच पुत्र हुए, जिनमें एक नरसिंह नामका भी पा । सीके रोकार राबवल्ल हुए थे । रायमल्लकी दो पत्नियां थीं।
लने प्रवापरली मोरन्द्र नामक पुष गोर भीमाहोते उदयसिंह, पति और जननामक तीन पुत्र हुए।
पीतालि, काति, मृमभान, भानुमति और कुमारन कारकों पीलिममापली आयी है। पारोमास या विपत
की प्रतिलिपि को गई है। ___८२ : तीर्घकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा