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________________ अर्थात् अहंबल्याचार्यने देशकालानुसार सिंह, नन्दी, सेन और देवसंघको स्थापना की। इससे यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि मूलसंघ पूर्वोक्त संघोंका स्थापक है। पीछे लोहाचार्यजीने काष्ठासंघकी स्थापना की। यह काष्ठासंघ खास करके 'अग्रोहे' नगरके अग्रवालोंके ही सम्बोधार्थ स्थापित किया गया। इसके कई लेख दिल्लीकी भट्टारक-गद्दियों में अब तक मौजूद हैं। उन्हींके आधारपर यह संक्षिप्त परिचय लिखा जाता है। दिगम्बराचार्य लोहाचार्यजी पक्षिय देश भद्दपुर विमा . बिहार करते-करते अग्रोहेके निकटवर्ती हिसारमें पहुंचे। वहां उन्हें कोई असाध्य रोग हुआ था, जिससे वे मूच्छित हो गये। वहकि श्रावकोंने उन्हें संन्यास-मरणस्वीकार कराया। इसके बाद कर्मसे स्वतः लंघन होनेके कारण त्रिदोष पाक होनेसे अपने आप निरोगी हो गये। निरोगी होनेपर जब इन्हें होश हुआ, तो इन्होंने भ्रामरी वृत्ति ( भिक्षावृत्ति से आहार करना विचारा । पीछे "श्रीसंघ"ने उनसे कहा कि महाराज! हम लोगोंने आपको स्णावस्था तथा मूच्छितावस्थामें यावजीवन आपसे संन्यास-मरणकी प्रतिज्ञा करवाई है और आहारका भी परित्याग करवाया है। अतः यह संघ आपको आहार नहीं दे सकता है । यदि आप नवीन संघ स्थापित कर कुछ जेनी बनावें, तो आप वहाँ आहार कर सकते हैं तथा वे दान दे सकते हैं। तत्पश्चात् प्रायश्चित्तादि शास्त्रोंके प्रमाणसे उक्त वृत्तान्त सत्य जान लोहाचार्यजी वहाँसे बिहार कर अग्रोहे नगरके बाह्य स्थानमें पहुंचे। वहा एक बड़ा पुराना ऊंचा इंटका पयाजा था। उसीके ऊपर बैठकर ध्यान-निमग्न हुए | अनभिज्ञ लोग अद्वितीय साधुको वहाँ आये हुए देखकर दूरसे ही बड़े आदरके साथ प्रणाम करने लगे ! मुनि महाराजके आनेकी धूम सारे नगरमें फैल गयी । हजारों स्त्री पुरुष इकट्ठी हो गये । कारण-विशेषसे एक वृद्धा श्राविका भी किसी दूसरे नगरसे आई थी । यह भी नगरमें महात्मा आये हुए सुन उनके दर्शनोंके लिए वहाँ आई । यह बुढ़िया दिगम्बराचार्यके वृत्तान्तको जानती थी, इसलिए ज्यों ही इसने महात्माको देखा, त्यों ही समझ गई कि ये तो हमारे श्री दिगम्बर गुरु हैं । बस, अब देर क्या थी। धीरे-धीरे वह पयाजेपर चढ़ गई और मुनि महाराजके निकट जाकर बड़ी विनयके साथ "नमोस्तु-नमोस्तु" कहकर यथास्थान बैठ गई। मुनिराज लोहाचार्यजीने भी 'धर्मदृद्धि' कहकर धर्मोपदेश दिया । यह घटना देख सबोंको बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि अहोभाग्य इस बुढ़ियाका कि ऐसे महात्मा इससे बोले । अब सब मुनि महाराजके निकट उपस्थित हुए। मुनि महाराजने सबोंको श्रावकधर्म पट्टावली : ३५९
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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