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________________ को उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त हुए । इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पांचों ही आचार्यपरिपाटीक्रमसे चौदह पूर्वके पाठी तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्यदेव, तिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह ही महापुरुष परिपाटी-क्रमसे ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व आदि दश पूर्वोके धारक हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्र वसेन, कंसाचार्य ये पांचों हो आचार्य परिपाटीक्रमसे सम्पूर्ण ग्यारह बंगोंके और चौदह पूर्वोक एकदेशके घारक हुए । तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चारों ही याचार्य सम्पूर्ण आचारांगके धारक और शेष बंग तथा पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । इसके बाद सभी अंग और पूर्वोका एकदेश आचार्य परम्परासे आता हुआ घरसेन आचार्यको प्राप्त हुआ। साशासकी जन्मति जेनाम्नायमें देश कालानुसार कई संघ प्रचलित हुए। किन्तु भिन्न-भिन्न पट्टावलियां, धर्मग्रन्थ सैद्धान्तिग्रन्थ, और पुराणोंका मंगलाचरण तथा प्रशस्ति देखनेसे यह निश्चित होता है कि सब संघोंका आदि संघ "मूल संघ" ही है। शायद इसी संकेतसे इस संघके आदिमें "मूल" शब्द जोड़ दिया गया है। हमारे इस कपनकी पुष्टि इन्द्रनन्दि सिद्धान्तीकृत "नीतिसार" अन्यके निम्नलिखित श्लोकोंसे भी होती है। "पूर्व श्रीमूलसंघस्तदनु सितपट: काष्ठसंघस्ततो हि तावाभूद्भाविगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एक: । तस्मिन् श्रीमूलसंधे मुनिजनविमले सेन-नन्दी च संघी स्यातां सिंहास्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः ।। अर्थात् पहले मूलसंघमें श्वेतपट गच्छ हुआ, पीछे कष्ठासंघ हुआ। इसके कुछ ही समयके बाद यापनीय गच्छ हुआ। तत्पश्चात् क्रमशः सेनसंघ, नन्दीसंघ, सिहसंघ और देवसंघ हुआ । अर्थात् मूलसंघसे ही काष्ठासंघ, सेनसंघ, सिंहसंघ और देवसंघ हुए। "अहंबलीगुरुश्चक्र संघसंघटनं परम् । सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघस्तयापरः ।। देवसंध इति स्पष्ट स्थान-स्थितिविशेषतः । ३५८ : तोयंकर महावीर और उनकी बाचार्यपरम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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