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पर ग्यारह अंगरूप प्रकाशके व्युच्छिन्न हो जानेपर सुभद्राचार्य आचारांगके और शेष अंगों एवं पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । तत्पश्चात् वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्यकी परम्परासे एकसो अठारह वर्ष आकार ब्युच्छिन्न हो गया [११८ वर्षमें ४ आचारांगघर] | इस सब कालका योग छह सौ तेरासी वर्ष होता है 1 [६२+ १०० + १८३ + २२० + ११८ = ६८३] । पुनः इसमें सात मास अधिक सतत्तर वर्षोंको [७७ वर्ष ७ मास ] कम करनेपर पांच मास अधिक छहसी पांच वर्ष होते हैं। यह, वीर जिनेन्द्रके निर्वाण प्राप्त होनेके दिनसे लेकर जबतक शककालका प्रारम्भ होता है, उतना काल है।
तित्थयरादो सुद-पज्जाएण गोदमो परिणदो ति दव्य-सुदस्स गोदमो कत्ता। तत्तो गंथ-रया जादेत्ति । जगदिम बिहाव सुदणाय लोहज्जस्स संचारिदं । तेण वि जंबूसामिस्स संचारिदं । परिवाडिमस्सिदण एदे तिष्णि वि सयलसुद-धारया भणिया। अपरिवाडीए पुण सयल-सुद-पारगा संखेज्ज-सहस्सा । गोदमदेवो लोहज्जाइरियो जंबूसामी य एदे तिण्णि वि सत्त-विह-लद्धिसंपण्णा सयल-सुय-सायर-पारया होऊण केवलणाणमुप्पाइय णिव्वुई पत्ता । तदो विण्हू णदिभित्तो अवराइदो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे पुरिसोली-कमेण पंच वि चोद्दसपुच्च-हरा । तदो विसाहइरियो पोठिलो खत्तियो जयाइरियो गागाइरियो सिद्धत्थदेवो धिदिसेणो विजयाइरियो बुद्धिलो गंगदेवो घण्मसे णो त्ति एदे पुरिसोली कमेण एक्कारस वि आइरिया एक्कारसण्हमंगाणं उप्पायपुवादि-दसण्हं पुयाणं च पारया जादा, सेसुवरिम-चदुम्ह पुव्वाणमेग-देश-धरा य । तदो पक्षत्ताइरियो जयपालो पांडुसामी धुवसेणो कंसारियो त्ति एदे पुरिसोलीकमेण पंच वि आइरिया एक्कारसंग-घारया जादा, चोदसण्हं पुन्वाणमेग-देस-धारया । तदो सुभद्दो जसभद्दो जसबाहू लोहज्जो त्ति एदे चत्तारि वि आइरिया आयारंग-धरा सेसंग-पुष्वाणमेग-देश-धारया । तदो सव्वेसिमंग-पुराणमेग-देसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो। -धव० १. १. १, पृ० ६५-६७
वर्षमान तीर्थङ्करके निमित्तसे गौतम गणधर श्रुतपर्यायसे परिणत हुए, इसलिए द्रव्यश्रुतके कती गौतम गणधर हैं । इस तरह गौतम गणधरसे ग्रन्थरचना हुई। उन गौतम गणधरने दोनों प्रकारका श्रुतज्ञान लोहाचार्यको दिया । लोहाचार्यने जम्बूस्वामीको दिया। परिपाटीक्रमसे ये तीनों ही सकलश्रुतके धारण करने वाले कहे गये हैं। और यदि परिपाटीक्रमकी अपेक्षा न की जाय, तो संख्यात हजार सकलश्रुतके धारी हुए।
गौतमस्वामी, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों ही सात प्रकारको ऋद्धियोंसे युक्त और सकलश्रुतरूपी सागरके पारगामी होकर अन्तमें केवलज्ञान
पट्टावली : ३५७