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कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धका इन चौदह अंगबाह्य प्रकीर्ण कोंकी श्रावण मासके कृष्णपक्षमें युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमें रचना की गयी थी, अत्तएव इन्द्रभूति भट्टारकवर्धमानजिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है
वर्षके प्रथम मास व प्रथम पक्ष श्रावणकृष्णको प्रतिपदाके पूर्व दिनमें अभिजित् नक्षत्रमें तीर्थकी उत्पत्ति हुई ॥ ४० ॥
इस प्रकार उत्तरतंत्रकर्त्ताकी प्ररूपणा की 1
अब उत्तरोत्तर तंत्रकर्त्ताओंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-कार्तिक मास के कृष्णपक्षको चतुर्दशीकी रात्रिके पिछले भाग में अतिशय महान् महावीर भगवान् मुक्त होनेपर केवलज्ञानकी सन्तानको वारण करने वाले गौतम स्वामी हुए । बारह वर्ष तक केवलविहारसे विहार करके गौतमस्वामीके मुक्त हो जानेपर लोहार्य आचार्य केवलज्ञानपरम्पराके धारक हुए। बारह वर्ष केवलविहारसे बिहार करके लोहार्यं भट्टारकके मुक्त हो जानेपर जम्बूभट्टारक केवलज्ञानकी परम्पराके धारक हुए । अड़तीस वर्ष केवलविहारसे विहार करके जम्बूभट्टारकके मुक्त हो जानेपर भरतक्षेत्रमें केवलज्ञानपरम्पराका विच्छेद हो गया। इस प्रकार भगवान् महावीरके निर्वाणको प्राप्त होने पर बासठ वर्षो से केवलज्ञानरूपी सूर्य भरतर्क्षेत्र में अस्त हुआ [ ६२ वर्षमें ३ के० ] । विशेष यह है कि उस कालमें संकलश्रुतज्ञानकी परम्पराको धारण करने वाले विष्णु आचार्य हुए | पश्चात् अविछिन्न सन्तानस्वरूपसे नन्दि आचार्य, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये सकलश्रुतज्ञानके धारक हुए। इन पाँच श्रुतकेवलियों के कालका योग सौ वर्ष है [ १०० वर्ष में ५ श्रु० के० ] पश्चात् भद्रबाहु भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होनेपर भरतक्ष में श्रुतज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया । अब भरतक्षत्र अज्ञान अन्धकारसे परिपूर्ण हुआ । विशेष इतना है कि उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवादपर्यन्त दृष्टिवाद अंगके भी धारक विशाखाचार्य हुए। विशेषता यह है कि इसके आगेके चार पूर्व उनका एक देश धारण करनेसे व्युच्छिन्न हो गये । पुनः वह विकल श्रुतज्ञान प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, घृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन इन आचार्योंकी परम्परासे एकसो तेरासी वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [ १८३ वर्षमें ११ एकादशांग -दशपूर्वघर ] | पश्चात् धर्मसेन भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होनेपर दृष्टिवाद - प्रकाशके नष्ट हो जानेसे ग्यारह अंगों और दृष्टिवादके एकदेश धारक नक्षत्राचार्य हुए । तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन ओर कंस इन आचार्योंकी परम्परासे दोसौ बीस वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [ २२० वर्षमें ५ एकादशांगघर ] | तत्पश्चात् कंसाचार्य के स्वर्गको प्राप्त होने ३५६ : सीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा