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________________ भावनाके समान ही जनकल्याणकी भावना भी काव्यमें समाहित रहती है । अतएव समाजके बीच रहने वाले कवि और लेखक गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए करुण भावकी उद्भावना सहज रूपमें करते हैं । एक ओर जहाँ सांसारिक सुखकी उपलब्धि और उसके उपायोंकी प्रधानता है, तो दूसरी ओर विरक्ति एवं जनकल्याणके लिये आत्मसमर्पणका लक्ष्य भी सर्वोपरि स्थापित है । ऐसे अनेक कवि और लेखक हैं, जो श्रावकपदका अनुसरण करते हुए राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, जातीय एवं आध्यात्मिक भावनाओंकी अभिव्यक्तिमें पूर्ण सफल हुए हैं । यद्यपि ऐसे सारस्वतोंमें आचार्यका लक्षण घटित नहीं होता, तो भी आचार्य - परम्पराका विकास और प्रसार करनेके कारण उनकी गणना आचार्यकोटिमें की जा सकती है । अतएव इस परिच्छेद में गृहस्थावस्थामें जीवनयापन करने वाले कवि और लेखकोंके साथ ऐसे त्यागी, मुनि और भट्टारक भी सम्मिलित हैं, जिनमें काव्य-प्रतिभाका अधिक समावेश है, तथा जिन्होंने आख्यानात्मक साहित्य लिखकर विषयमें उदात्तता, घटनाओं में वैचित्र्यपूर्ण विन्यास, चरित्र-चित्रण, असंख्य रमणीय सुभाषित एवं मानव - क्रियाकलापोंके प्रति असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदर्शित की है। इस श्रेणीकी रचनाओं में मानव-मनोवृत्तियोंका विशद और सांगोपांग चित्रण पाया जाता है । जैन कवि काव्यके माध्यमसे दर्शन, ज्ञान और चरित्रकी भी अभिव्यञ्जना करते रहे हैं । वे आत्माका अमरत्व एवं जन्म-जन्मान्तरोंके संस्कारोंकी अपरिहार्यता दिखलाने के पूर्व जन्मके व्याख्यानों का भी संयोजन करते रहे हैं । प्रसंगवश चार्वाक, तत्त्वोपप्लववाद प्रभृति नास्तिकवादोंका निरसन कर आत्माका अमरत्व और कर्म संस्कारका वैशिष्टय प्रतिपादित करते रहे हैं। जिस प्रकार एक ही नदी के जलको घट, कलश, लोटा, झारी, गिलास प्रभृति विभिन्न पात्रों में भर लेने पर भी जलकी एकरूपत्ता अखण्डित रहती है, उसी प्रकार तीर्थंकरकी वाणीको सिद्धान्त, आगम, आचार, दर्शनं, काव्य आदिके माध्यमसे अभिव्यक्त करने पर भी वाणीकी एकता अक्षुण्ण बनी रहती है। जिन तथ्य या सिद्धान्तोंको श्रुतधर, सारस्वत, प्रबुद्ध और परम्परापोषक आचार्योंने आगमिक शैली में विवेचित किया है, उन तथ्य या सिद्धान्तोंकी न्यूनाधिकरूपमें अभिव्यक्ति कवि और लेखकों द्वारा भी की गयी है। अतएव तीर्थंकर महावीरकी परम्परा के अनुयायी होनेसे कवि और लेखक भी महनीय हैं। हम यहाँ संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दीके जैन कवियोंका इतिवृत्त अंकित कर तीर्थंकर महावीरकी आचार्य-परम्परापर प्रकाश डालेंगे। हमारी दृष्टिमें साहित्य-निर्माता सभी सारस्वत तीर्थंकर की वाणीके प्रचारकी दृष्टिसे मूल्यवान हैं। २ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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