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सुविधाकी दृष्टिसे कवि और लेखकोंका भाषाक्रमानुसार इतिवृत्त उपस्थित करना अधिक वैज्ञानिक होगा । अतएव हम सर्वप्रथम संस्कृत भाषा के कवि लेखकोंका व्यक्तित्व और कृतित्व उपस्थित करेंगे ।
संस्कृतभाषाके कवि और लेखक
संस्कृत काव्यका प्रादुर्भाव भारतीय सभ्यताके उषाकालमें ही हुआ है । यह अपनी रूपमाधुरी और रसमयी भावधाराके कारण जनजीवनको आदिम युगसे ही प्रभावित करता आ रहा है । जब संस्कृतभाषा तार्किकोंके तीक्ष्ण तर्कवाणोंके लिये तुणी बन चुकी थी, उस समय इस भाषा का अध्ययन-मनन न करने वालोंके लिये विचारोंकी सुरक्षा खतरे में थी । भारतके समस्त दार्शनिकोंने दर्शनशास्त्र के गहन और गूढ़ ग्रन्थोंका प्रणयन संस्कृत भाषामें प्रारम्भ किया । जैन कवि और दार्शनिक भी इस दौड़ में पीछे न रहे। उन्होंने प्राकृतके समान ही संस्कृतपर भी अधिकार कर लिया और काव्य एवं दर्शनके क्षेत्रको अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओंके द्वारा समृद्ध बनाया। यही कारण है कि जैनाचाने काव्यके साथ आगम, अध्यात्म, दर्शन, आचार प्रभृति विषयोंका संस्कृतमें प्रणयन किया है। डॉ० विन्टरनित्सने जैनाचार्यों के इस सहयोग की पर्याप्त प्रशंसा की है। उन्होंने लिखा है
I was not able to do full justice to the literary achievements to the Jainas. But I hope to have shown that the jainas have contri buted their full stare to the religious ethical and scientific literature of ancient India1.
अब यह कहा जा सकता है कि जैनाचार्योंने प्राकृतके समान ही संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी आदि विभिन्न भाषाओं में अपने विचारोंकी अभिव्यञ्जना कर वाङ्मयकी वृद्धि की है। हम यहाँ संस्कृत के उन कवियोंके व्यक्तित्व और कृतित्वको प्रस्तुत करेंगे, जिन्होंने जीवनकी स्थिरताके साथ गम्भीर चिन्तन आरम्भ किया है तथा जिनकी कल्पना और भावनाने विचारोंके साथ मिलकर त्रिवेणीका रूप ग्रहण किया है। जीवनकी गतिविधियों, विभिन्न समस्याओं, आध्यात्मिक और दार्शनिक मान्यताओंका निरूपण काव्यके धरातल पर प्रतिठित होकर किया है ।
1. The Jainas in the Hisury of Indian literature by Dr. Winternitz, Edited by Jina Vijaya Muni, Ahmedabad 1949, f 'age 4.
आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : ३