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का समाधान करते हुए काव्य-रचनामें प्रवृत्त रहे। धर्मविशेषके कवियों द्वारा लिखा जानेपर भी जनसामान्यके लिए भी यह साहित्य पूर्णतया उपयोगी है। इसमें सुन्दर आत्म-पीयूष रस छलछलाता है और मानवको उन भावना और अनुभूतियोंको अभिव्यक्ति प्रदान की गई है, जो समाजके लिए संबल हैं और जिनके आधारपर ही समाजका संगठन, संशोधन और संस्करण होता है ।
स्वातन्त्र्य या स्वावलम्बनका पाठ पढ़ानेके लिए आत्माको उन शक्तियोंका विवेचन किया गया है, जिनके आधारपर समाजवादी मनोवृतिका विकास किया जाता है । आध्यात्मिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टियोंसे समाजवादी विचारधाराको स्थान दिया गया है। स्याद्वाद-सिवान्त द्वारा उदारता और सहिष्णुताको शिक्षा दी गई है।
आरंभमें जैन कलाकारोंने लोकभाषा हिन्दोको ग्रहनकर जीवनका चिरन्तन सत्य, मानव-कल्याणकी प्रेरणा एवं सौन्दर्यको अनुभूतिको अनुपम रूपमें अभिव्यक्ति प्रदान की है।
आत्मशुद्धिके लिए पुरुषार्थ अत्यावश्यक है । इसोके द्वारा राग-द्वेषको हटाया जा सकता है। यह पुरुषार्थ प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्गों द्वारा सम्पन्न किया जाता है ! प्रवृत्तिमार्ग कर्मबन्धका कारण है और निवृत्तिमार्ग अबन्धका । यदि प्रवृत्ति. मार्गको घूमघूमावदार गोलघर माना जाये, जिसमें कुछ समयके पश्चात् गमन स्थानपर इधर-उधर दौड़ लगाने के अनन्तर पुन: आ जाना पड़ता है, तो निवृत्ति. मार्गको पक्की, सीधी, कंकड़ीली सीमेण्टकी सड़क कहा जा सकता है, जिसमें गन्तव्य स्थानपर पहुंचना सुनिश्चित है। पर गमन करना कष्टसाध्य है । हिन्दी के जैन कवियोंने दोनों ही मार्गोका निरूपण अपने काव्योंमें किया, पर उपादेय निवृत्तिको ही माना है।
अहिंसा, अपरिग्रह और स्याद्वादके सिद्धान्तने आध्यात्मिक समानताके साथ आर्थिक समानताको भी प्रस्तुत किया है। १७वीं शतीसे अद्यावधि जैन कवि और लेखक हिन्दी-भाषामें विभिन्न प्रकारके काव्य ग्रन्थोंका निर्माण करते चले आ रहे हैं । इन लेखकोंकी रचनाएँ मानवको जड़तासे चैतन्यकी ओर, शरीरसे आत्माको ओर, रूपसे भावकी ओर, संग्रहसे त्यागको ओर एवं स्वार्थसे सेवाको ओर ले जाने में समर्थ हैं। जब तक जोवनमें राग-द्वेषकी स्थिति बनी रहती है, तब तक त्याग और संयमको प्रवृत्ति आ नहीं सकती। राग और द्वेष हो विभिन्न आश्रय और अवलम्बन पाकर अगणित भावनाओंके रूपमें परियत्तित हो जाते हैं। जीवनके व्यवहारक्षेत्रमें व्यक्तिको विशिष्टता, समानता एवं होनताके
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २४४