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अनुसार उक्त दोनों भावों में मौलिक परिवर्तन होता है । साधु और गुणवानके प्रति राग सम्मान हो जाता है। यही सम्मानके प्रति प्रेम एवं हीनके प्रति करुणा बन जाता है। मानव रागभावके कारण हो अपनी अभोष्ट इच्छाओंकी प्रत्ति न होनेपर क्रोध करता है, अपनेको उच्च और बड़ा समझ कर दूसरोंका तिरस्कार करता है । दूसरोंकी धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य देखकर हृदयमें ईर्ष्याभाव उत्पन्न करता है तथा सुन्दर रमणियोंके अवलोकनसे काम-तुष्णा उसके हृदयमें जागृत हो जाती है। अतएव यह स्पष्ट है कि संसारके दुःखोंका मूल कारण राग-द्वेष हैं। इन्हींकी अधीनताके कारण सभी प्रकारकी विषमताएं समाज में उत्पन्न होती हैं।
अतएव हिन्दीके जैन कवियोंने मानवके अन्तर्जगतके रहस्य के साथ बाह्यरूपमें होनेवाले संघर्षों, उलट-फेरों एवं पारस्परिक कलह या अन्य झगड़ोंका काव्योंके द्वारा उद्घाटन किया है । __हिन्दीके शताधिक अनकवि हुए है । पर उन सबको इतिवृत्त प्रस्तुत कर सकना संभव नहीं है । अतः प्रतिनिधिकवि और लेखकोंके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालना समोचीन होगा। यह सत्य है कि जैन लेखकोंने जैनदर्शनके सिद्धान्तोंको अपने काव्योंमें स्थान दिया है; पर रस-परिपाक, मानवीय प्रवृत्ति, आर्थिक संघर्ष, जातिवादके अहंकार आदिकी सूक्ष्म व्यंजना की है।
महाकवि बनारसीदास बीहोलिया वंशको परम्परामें श्रीमाल-जातिके अन्तर्गत बनारसीदासका एक धनी-मानी सम्भ्रान्त परिवार में जन्म हुआ। इनके प्रपितामह जिनदासका 'साका' चलता था। पितामह मलदास हिन्दी और फारसीके पंडित थे। और ये नरवर (मालवा)में वहाँके मुसलमान-नबाबके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह पिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जोहरी थे। पिता खड़गसेन कुछ दिनों तक बंगालके सुल्तान मोदीखोके पोतदार थे। और कुछ दिनोंक उपरान्त जोनपुरमें जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वंश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी धनी थे।
खड्गसेनको बहुत दिनों तक सन्तानको प्राप्ति नहीं हुई थी और जो सन्तानलाभ हुआ भी, वह असमयमें ही स्वर्गस्थ हो गया। अतएव पुत्र-कामनासे प्रेरित हो खड्गसेनने रोहतकपुरकी सतीकी यात्रा की ।
बनारसीदासका जन्म वि० सं० १६४३ माघ, शुक्ला एकादशी रविवारको २४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा