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रोहिणी नक्षत्र में हुआ और बालकका नाम विक्रमाजीत रखा गया । खड्गसेन बालकके जन्मके छः-सात महीने के पश्चात् पार्श्वनाथ की यात्रा करने काशी गये । बड़े भक्तिभावसे पूजन किया और बालकको भगवत् - चरणोंमें रख दिया तथा उसके दीर्घायुष्मकी प्रार्थना की । मन्दिर के पुजारीने मायाचार कर खड्गसेन से कहा कि तुम्हारी प्रार्थना पार्श्वनाथके यक्षने स्वीकार कर ली है । तुम्हारा पुत्र दीर्घायुष्क होगा। अब तुम उसका नाम बनारसीदास रख दो। उसी दिनसे विक्रमाजीतनाम परिवर्तित हो बनारसोदास हो गया । पाँच वर्षकी अवस्थामें बनारसीदासको संग्रहणी रोग हो गया और यह डेढ़-दो वर्षों तक चलता रहा । बीमारीसे मुक्त होकर बनारसीदासने विद्याध्ययन के लिए गुरु चरणोंका आश्रय ग्रहण किया ।
नव वर्षको अवस्था में इनकी सगाई हो गई और इसके दो वर्ष पश्चात् सं० १६५४ में विवाह हो गया । बनारसीदासका अध्ययनक्रम टूटने लगा। फिर भी उन्होंने विद्याप्राप्ति के योगको विसी तरह बनाये रखनेका प्रयास किया । १४ वर्षको अवस्था में उन्होंने पं० देवीदाससे विद्याध्ययनका संयोग प्राप्त किया । पंडितजीसे अनेकार्थनाममाला, ज्योतिषशास्त्र, अलंकार तथा कोकशास्त्र आदिका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने अध्यात्म के प्रखर पडित मुनि भानुचन्द्रसे भो विविध शास्त्रोंका अध्ययन आरंभ किया। पंचसंधि, कोप, छन्द, स्तवन, सामायिकपाठ आदिका अच्छा अभ्यास किया । बनारसीदासकी उक्त शिक्षा से यह स्पष्ट है कि वे बहुत उच्चकोटिको शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके थे । पर उनकी प्रतिभा इतनी प्रखर थी, जिससे वे संस्कृतके बड़े-बड़े ग्रंथों को समझ लेते थे ।
१४ वर्षको अवस्था में प्रवेश करते हो कविको कामुकता जाग उठी और वह ऐयाशी करने लगा | अपने अर्द्धकथानकमें स्वयं कविने लिखा है
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तजि कुल-आन लोककी लाज भयो बनारस आसिखबाज || १७० || करे आसिखी धरत न घोर, दरदबंद ज्यों सेख फकीर । इक-टक देख ध्यान सो धरे, पिता आपनेको धन हरे ||१७१ ॥ चोर चूनी मानिक मनी, आने पान मिठाई धनी । मेजं पेसकसी हितपास, आप गरीब कहावे दास ॥ १७२॥
माता-पिता की दृष्टि बचाकर मांग, रत्न तथा रुपये चुराकर स्वयं उड़ानाखाना और अधिकांश प्रेम-पात्रों में वितरित करनेका एक लम्बा क्रम बंध गया । मुनि भानुचन्द्र ने भी इन्हें समझानेका बहुत प्रयास किया, पर सब व्यर्थ हुआ afat इसी अवस्था में एक हजार दोहा चौपाईप्रमाण नवरसको कविता लिखी आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २४९