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'संसिजिणिदंह-पय-कमलु भव-सय-कलुस-कलंक-निवार ।
उदयचन्दगुरु घरेवि मणे बालइंदुमुणि विवि णिरंतरु ।' स्पष्ट है कि कविके गुरुका नाम उदयचन्द्र मुनि था। बालचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्र मुनि थे। कवि व्रतकथाओंका विज्ञ है और व्रताचरण द्वारा ही व्यक्ति अपना उत्थान कर सकता है। इस पर उन्हें विश्वास है।
श्री डॉ हीरालालजी जैनने सुगन्धदशमी कथाकी प्रस्तावनामें उदयचन्द्रका समय ई० सन्की १२वीं शती सिद्ध किया है। उन्होंने विनयचन्द्र द्वारा रचित्त 'चूनड़ी के उल्लेखोंके आधारपर अभिलेखीय और ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत कर निष्कर्ष निकाले हैं। डॉ० जेनने लिखा है-"सुगन्धदशमोकथाके कर्ता उदयचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरि (तिहनगढ़ ) में अपनी उक्त दो रचनाएँ पूरी की थीं, उसका निर्माण इस यदुवंशके राजा त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ने अपने नामसे . सन् १०४४के कुछ काल पश्चात् कराया था तथा अजयनरेन्द्र के जिस राजविहारमें रहकर उन्होंने चूनड़ीकी रचना की थी, वह निस्संदेह इन्हीं अजयपालनरेश द्वारा बनवाया गया होगा, जिनका सन् ११५०का उत्कीर्ण लेख महाक्नसे मिला है। सन् १९९६ में त्रिभूवनगिरि उक्त यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकलकर मुसलमानोंके हाथमें चला गया। अतएव त्रिभुवनगिरिके लिखे गये उक्त दोनों ग्रन्थोंका रचनाकाल लगभग सन् १९५० और ११९६ के बीच अनुमान किया जा सकता है।"
अतः स्पष्ट है कि कवि बालचन्द्रका समय ई० सन्की १२वीं शती है। रचनाएं
कविकी दो कथा कृतियाँ उपलब्ध है—१. णिदुक्खसत्तमीकहा और २. नरक उतारोदुधारसीकथा । प्रथम कथानन्थमें 'निर्दु:खसप्तमीव्रतके करनेकी विधि और असपालन करने वालेकी कथा वर्णित है। यह व्रत भाद्रपद शुक्ला सप्तमीको किया जाता है । इस व्रतमें 'ॐ ह्र असिआउसा' इस मंत्रका जाप किया जाता है। व्रतके पूर्व दिन संयम धारण किया जाता है और व्रतके अगले दिन भी संयमका पालन किया जाता है। इस व्रतमें प्रोषधोपवासकी विधि सम्पन्न की जाती है। सात वर्षों तक व्रतके पालन करनेके पश्चात् उद्यापन करनेकी विधि बतायी है। लिखा है
"किज धण सत्तिहि उज्जवणउं, विविह-गवणेहिं दुह-दमणउं । १. डॉ. हीरालाल जैन, सुगन्धदशमी कपा, भारतीय ज्ञानपीक प्रकासन, सन् १९९६,
प्रस्तावना पृ० ४। १९. : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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