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________________ समस्त द्रव्योंके उत्पादादिरूप परिणमनमें सहकारी कालद्रव्य होता है। इसका स्वरूप 'वर्तना' लक्षण है। यह स्वयं परिणमन करते हुए अन्य द्रव्योंके परिणमनमें सहकारी होता है । यह भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय,प्रौव्य युक्त है। प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालाणद्रव्य अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्यके समान यह कालद्रव्य एक नहीं है, यत: प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर समय-भेद स्थित रहनेसे यह अनेक रत्नोंकी राशिके समान पिण्डद्रव्य है । द्रव्योंमें परत्व, अपरत्व, पुरातनत्व, नृतनत्व, अतीत, वर्तमान और अनागतत्त्वका व्यवहार कालद्रव्यके कारण ही होता है। प्रत्येक द्रव्यमें सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं। प्रत्येक गुणका भी प्रतिसमय परिणमन होता है। गुण और द्रव्यका कथञ्चित् तदात्म्यसम्बन्ध है । द्रव्यसे गुणको पृथक नहीं किया जा सकता। इसलिए वह अभिन्न है और संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उसका विभिन्न रूपसे निरूपण किया जाता है, अतः वह भिन्न है । इस दृष्टिसे द्रव्यमें जितने गुण हैं उतने उत्पाद और व्यय प्रतिसमय होते हैं। प्रत्येक गुण अपने पूर्व पर्यायको त्यागकर उत्तरपर्यायको धारण करता है। पर उन सबको द्रव्यसे भिन्न सत्ता नहीं रहती है। सूक्ष्मतया देखनेपर पर्याय और गुणको छोड़कर द्रव्यका कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, गुण और पर्याय ही द्रव्य है। पर्यायोंमें परिवर्तन होनेपर भी जो एक अनच्छिन्नताका नियामक अंश है, वही तो गुण है । गुणोंको सहभावी एवं अन्वयी तथा पर्यायोंको व्यतिरेकी और क्रमभावी माना जाता है। पर्याय, गुणोंका परिणाम या विकार होती हैं। द्रव्य, गुण और पर्यायके विवेचनके साथ जीव, अजीक, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका निरूपण भी किया गया है । आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व दो-दो प्रकारके होते हैं-द्रव्य और भावरूप । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आत्मपरिणामोंसे कर्मपुद्गलोंका आगमन, जिन भावोसे होता है वे भावास्रव कहलाते हैं । और पुद्गलोंका बाना द्रव्यास्रव है। भावानव जीवगत पर्याय है और द्रव्यास्रव पुद्गलगत । जिन कषायोंसे कर्म बन्धते हैं, वे जीवगत कषायादि भावभावबन्ध हैं और पुद्गलकर्मका आत्मसे सम्बन्ध हो जाना द्रव्यबन्ध है। भावबन्ध जीवरूप है और द्रव्यबन्ध पुद्गलरूप 1 व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहज़यरूप भावोंसे कर्मोके आनेको रोकना भावसंबर है। और कोका रुक जाना द्रव्यसंवर है | इसी प्रकार पूर्व संचित कोका निर्जरण जिन लपादिभावोंसे होता है वे भावनिर्जरा हैं और कमोंका झड़ना द्रव्य आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३३३
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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