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कहा ये दो रचनाएं प्राप्त है । डॉदेवेन्द्रकुमार शास्त्रीने भ्रमवश 'बढमाणकहा' और 'जिण रत्तिविहाणकाहा को पृथक्-पृथक् मान लिया है । वस्तुतः ये दोनों एक ही रचना हैं । आमेर-भण्डारकी प्रतिमें लिखा है
इय जिणतविहाणु पयासिउ, जइ जिण-सासण गणहर भासिउ |
घत्ता--सिरिजरसेणहो सामिउ सिवपुर, गामिज वड्ढमाण-तित्थंकर ।
जा मग्गिउ देइ करुण करेइ, रेज सुबोहिउ गरु ।। उपर्युक्त पक्तियोंसे यह स्पष्ट है कि वर्धमानकथा और जिनरात्रिविधानकथा दोनों एक ही ग्रन्थ हैं। जिस रात्रि में भगवान महावीरने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रतको कथा शिवरात्रिक समान लिखी गई है। इसमें तीर्थंकर महावीरका वर्तमान जीवनवृत्त भो अंकित है। कविको दूसरी रचना 'सिद्धचक्ककहा' है । सिद्धचनकथामें उज्जयिनी नगरके प्रजापाल राजाकी छोटी कन्या मैनासुन्दरी और चम्पा नगरीक राजा श्रीपालका कथा अंकित है। इस कथाको पूर्व में भी लिग्वा जा चुका है। नरसेनने दो सन्धियोंमें ही इस कथाको निबद्ध किया है । इस कथाग्रन्थमें पौराणिक तथ्योंकी सम्यक योजना की गई है । घटनाएँ सक्षिप्त हैं; पर उनमें स्वाभाविकता अधिक पाई जाती है। आधिकारिक कथामें पूर्ण प्रवाह और गतिशीलता है। प्रासंगिक कथाओंका प्रायः अभाव है; किन्तु घटनाओं और वृत्तोंकी योजनाने मुख्य कथाको गतिशील बनाया है। वस्तु-विषय और संघटनाको दृष्टि से अल्पकाय होनेपर भी यह सफल कथाकाव्य है ।
वर्णनोंकी मरसताने इस कथाकाव्यको अधिक रोचक बनाया है। विवाहवर्णन (१।१४), यात्रावर्णम (१।२४), समुद्रयात्रावर्णन (१।२५), युद्धवर्णन (२६) और युद्धयात्रावर्णन (२।२२) आदिके द्वारा कविने भावोंको सशक्त बनाया है । संवाद और भावोंकी रमणीयता आद्यन्त व्याप्त है।
माताका उपदेश, सहस्रकूट चैत्यालयकी वन्दना, सिद्धचक्रवतका पालन, वीरदमनका साधु होना, मुनियोंसे पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनना तथा मुनिदीक्षा ग्रहण कर तपस्या करना आदि संदर्भोसे निर्वेदका संचार होता है।
कविने इस कथाकाव्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, अनुमान आदि अलंकारोंकी योजना भी की है। इस प्रकार यह काव्य कवित्वको दृष्टिसे भी सुन्दर है। २२४ : तीर्थंकर महावीर और न नको आचार्य-परम्परा