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________________ संसारको नश्वरता और अस्थिरताका चित्रण करते हुए कविने बताया है कि कालके प्रभावसे कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किश्वर, खेचर, सुर, अमरपति सब कालके वशवर्ती हैं ।" प्रत्येक प्राणी अपने कर्मो के लिए उत्तरदायी, वह अकेला ही संसार में जन्म ग्रहण करता है, अकेला हो दुःख भोगता है और अकेला ही मृत्यु प्राप्त करता है | करकंडुको प्रयाण करते समय गंगा नदी मिलता है । कविने गंगाका वर्णन जीवन्त रूपमें प्रस्तुत किया है गंगापरसु संपल एण गंगाणइ दिट्टी जंतएण । सा सोहई सिय-जल कुडिलयंत्ति, णं सेयभुवंगहो महिल जंति । दूराव वती अविहाई, हिमवंत- गिरिदहो कित्ति पाई । बिहिं कुलहिं लोयहिं हंतएहिं आइन्चहो जल परिदितिएहिं । दब्भंकिय उड़ढहिँ करयलहिं गह भगइ गाइँ एयहि छलेहिं । हउँ सुद्धिय नियमग्गेण जामि मा रूसहि अम्महो उवरि सामि । शुभ्र जलयुक्त, कुटिल प्रवाहवाली गंगा ऐसी शोभित हो रही थी, मानों शेषनागकी स्त्री जा रही हो । दूरसे बहुतो हुई गंगा ऐसी दिखलाई पड़ती थी, जैसे वह हिमवंत गिरीन्द्रकी कीर्ति हो । दोनों कूलों पर नहाते हुए और आदित्यको जल चढ़ाते हुए, दर्भसे युक्त ऊँचे उठाये हुए करतलों सहित लोगोंके द्वारा मानों इसी बहानेसे नदी कह रही है "मैं शुद्ध हूँ और अपने मार्ग से जाती हूँ । हे स्वामी ! मेरे ऊपर रुष्ट मत होइये ।" कविके वर्णन में स्वाभाविकता है । कविने भाषाको प्रभावोत्पादक बनानेके लिए भावानुरूप शब्दों का प्रयोग किया है | पद-योजना में छन्दप्रवाह भी सहायता प्रदान करता है । ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग भी यथास्थान किया गया है । कविने विभिन्न प्रकारके छन्द और अलंकारोंकी योजना द्वारा इस काव्यको सरस बनाया है । महाकवि सिंह महाकवि सिंह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषा के प्रकांड विद्वान थे । इनके पिताका नाम रल्हूण पंडित था, जो संस्कृत और प्राकृत भाषा के १. करकंडुचरिउ ९८५११-१० । २. वही ९।६ । १६६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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