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और इसमें अन्तिम तीर्थंकरमहावीरका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। प्रथम सन्धि या परिच्छेदमें नन्दिवर्धन राजाके वेराग्यका वर्णन किया है। द्वितीय सन्धिमें 'मयबई' मृगपतिकी भवावलीका वर्णन किया गया है । तृतीय सन्धिमें बलवासुकी उत्पत्तिका वर्णन किया गया है। चतुर्थ सन्धिमें सेनानिवेशका वर्णन है। इसी सन्धिमें कविने युद्धका भी चित्रण किया है। पंचम सन्धिमें त्रिविष्टविजयका वर्णन है। षष्ठ सन्धिमें सिंह-समाधिका चित्रण है। सप्तम सन्धिमें हरिषेणराय मुनिका स्वर्ग-गमन वणित है । अष्टम सन्धिमें नन्दनमुनिका प्राणत कल्पमें गमन वर्णित है ! नवम सन्धिमें वीरनाथके चार कल्याणकोंका वर्णन है और दशम सन्धिमें तोर्थंकर महावीरका धर्मोपदेश, निर्वाणगमन, गुणस्थानारोहण एवं गुणस्थानक्रमानुसार प्रकृतियोंके क्षयका कथन आया है। इस प्रकार इस चरित-ग्रंथमें तीर्थंकर महावीरके पूर्वभव और वर्तमान जीवनका कथन किया है।
नगर, ग्राम, सरोवर, देश आदिका सफल चित्रण किया गया है। कदिने श्वेतछत्र नगरीका चित्रण बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं
जहि जल-खाइयहि तरंग-पति । सोहइ पवणाय गयणपति । जव-लिणि-समुभव-पाराणील। णं जंगम-हिहर माल लोल ।। जहि गयणंगण-गय-गोपुराई । रयणमय-कवाडहि सुन्दराई। पेखेवि नहि जंतु सुहा वि सम्गु । सिरु धुणई मउडमंडिय णहागु ॥ जहि निवसहि वणियण गय-पमाय । परदार-विरय परिमुक्क-माय । सद्दत्य-वियषखण दाण-सील । जिणधम्मासत्त विसुद्ध-सील ।। जहिं मंदिरभित्ति-विलंबमाण । णीशमणिकरो हइ घावमाण । माकर इंति गिहाण-कएण | कसणो ख्यालि भक्खण-रएण जहि फलिह-बद्ध-महिपले मुहेसु । णारी-यणाइ पडि-बिबिएसु । अलि पडइ कमल-लाले सनेउ । अहवा महवह ण हवाइ विवेउ॥ जहि फलिह-भित्ति-पहिबिंबियाई । णियरूवा जयणहि भावियाई । ससवत्ति-संक गय-रय-खमाह। बुज्झति तियउ णियपिययमाहं ॥१॥३
अर्थात् श्वेतछत्र नगरीको जल-परिखाओंमें पवनाहत होकर तरंग-पंक्ति ऐसी शोभित होती थी, मानों गगन-पंक्ति हो हो । नवनलिनी अपने पत्तों सहित महोघरके समान शोभित होती थी, आकाशको छूने वाले गोपुर रस्लमय मंडित किवाड़ोंसे युक्त शोभित थे। उन गोपुरोंको देखनेपर स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगता
भावार्यतुत्य काव्यकार एवं लेखक : १४३