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इनके पिताका नाम नेमिकुमार था। तेमिकुमारने राहडपुरमें भगवान नेमिनाथका और नलोटपुरमें २२ देवकुलकाओं सहित बादिनाथका विशाल मंदिर निर्मित किया था । काव्यानुशासनमें लिखा है
नाभेयचैत्यसदने दिशि दक्षिणस्यां । द्वाविंशतिविदधता जिनमन्दिराणि । मन्ये निजाग्रवरप्रभुराह्डस्य । पूर्णीकृतो जगति येन यशः शशांकः ।। - काव्यानुशासन पू० ३४ नेमकुमार के पिताका नाम मक्कलप और माताका नाम महादेवी था । इनके राहड और नेमिकुनार दो पुष में, जिनमें नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे । नेमिकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता राहड़के परम भक्त थे और उन्हें श्रद्धा और प्रेमकी दृष्टिसे देखते थे ।
कवि वाग्भट्ट भक्ति रसके अद्वितीय प्रेमी थे। उन्होंने अपने अराध्य के चरणोंमें निवेदन करते हुए बताया है कि मैं न मुक्तिकी कामना करता हूं और न धनवैभवकी । मैं तो निरन्तर प्रभुके चरणोंका अनुराग चाहता हूँ
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नो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवेः कार्यं न सांसारिकैः, कित्वायोज्य करौ पुनरिदं त्वामीशमभ्यचंये ।
स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मंदिरे,
कान्तारे निशि वासरे च सततं भक्तिमंमास्तु त्वमि ।
अर्थात् हे नाथ में सुतिपुरीकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योंको पूतिके लिए वन-सम्पत्तिकी ही आकांक्षा करता है; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़ मेरी यही प्रार्थना है कि स्वप्नमें, जागरण में स्थितिमें, चलनेमें, सुख-दुःख में, मन्दिर में, वन, पर्वत आदिमें, रात्रि और दिनमें आपकी ही भक्ति प्राप्त होती रहे । मैं आपके चरणकमलोंका सदा भ्रमर बना रहूँ ।
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कवि वाग्भट्ट ने अपने ग्रंथों में अपने सम्प्रदायका उल्लेख नहीं किया है, पर काव्यानुशासनकी वृत्तिके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी होना सूचित होता है। उन्होंने समन्तभद्र के बृहत्स्वयं भूस्तोत्रके द्वित्तीय पद्यको "प्रजापतियः प्रथमं जिजीविषुः " आदि " आगमासवचनं यथा" वाक्यके साथ उद्धृत किया है । इसी प्रकार पृष्ठ ५पर यह ६५व पद्य भी उद्धत है---
नयास्तवस्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविद्धा इव लोहषातयः । भवन्त्यभि प्रेतगुणा यसस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।। इसी प्रकार पृष्ठ १५पर आचार्य वीरनन्दीके मंगल-पचको उद्धृत किया है । पृष्ठ १६५ र नेमिनिर्वाण काव्यका निम्नलिखित पद्य उद्धृत है
३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा