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जीवनका अर्न्तदर्शन ज्ञान-दीपके द्वारा ही संभव है, पर.इस शानदीपमें तपरूपो तेल और स्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है।
ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोघे भ्रम छोर ।
या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ।।४।८१ कविने इस काव्यकी समाप्ति वि० सं० १७८९ आषाढ़ शुक्ला पंचमीको की है।'
२. जैन शसक-इस रचनामें १०७ कवित्त, दोहे, सवैये बोर छप्पय हैं। कविने वैराग्य-जीवनके विकासके लिए इस रचनाका प्रणयन किया है। पद्धावस्था, संसारकी असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियोंकी तपस्या, आशा-तृष्णाकी नग्नता आदि विषयोंका निरूपण बड़े ही अद्भुत ढंगसे किया है। कवि जिस तय्यका प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है। नोरस और गूढ विषयोंका निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शेलीमें किया गया है। कल्पना, मावना और विचारोंका समन्वय सन्तुलित हमें या है । यात्म-मौन्दर्यका दर्शन कर कवि कहता है कि संसारके भोगोंमें लिप्त प्राणी अनिश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार मो संभव हो उस प्रकार में धन एकत्र कर आमन्द भोगू । मानव नाना प्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त होनेपर संसारके समस्त अभ्युदयजन्य कार्यों को सम्पन्न करूंगा, पर उसकी धनार्जनकी यह अभिलाषा मृत्युके कारण अधूरी ही रह जाती है । यथा
चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज करे जिय राजो । गेह चिनाय करूं गहना फछु, ब्याहि सुता सुत बाटिय भाजी ।। चिन्तत यो दिन जाहि चले, जम आनि अचानक देत दगाजी।
खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंजकी बाजी॥ इस संसारमें मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी सेवा करता है। शरीरको स्वच्छ करने में अनेक साबुनको बट्टियाँ रगड़ डालता है और अनेक तेलकी शीशियो खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थों का उपयोग शारीरिक सौन्दर्य, प्रसाधनमें करता है, प्रतिदिन रगड़-रगड़कर शरीरको साफ करता है। इत्र और सेण्टोंका व्यवहार करता है। प्रत्येक इन्द्रियको तृप्तिके लिए अनेक पदार्थोका संचय करता है। इस प्रकारसे मानवको दृष्टि अनात्मिक १. संवत् सतरह शतक मैं, और नवासी लीय ।
सुदी अषाढ़ तिथि पंचमी, अन्य समापत कोय ।।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७५