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छोटे भाईकी पत्नी के साथ दुराचार किया। जब राजा शत्रुको परास्त कर राजधानी में आया तो कमठके कुकृत्यको बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ । कमठका काला मुंह कर गदहे पर चढ़ा सारे नगर में घुमाया और नगरकी सीमासे बाहर कर दिया। आत्म-प्रताड़नासे पीडित कमठ भूताचल पर्वतपर जाकर तपस्वियोंके साथ रहने लगा । मरुभूति कमठ के इस समाचारको प्राप्त कर भूताचलपर गया और वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद कविने आठ जन्मों की कथा अंकित की है। नवें जन्म में काशी विश्वसेन राजाके यहाँ पार्श्वनाथका जन्म होता है। पार्श्व आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्मसाधना करते हैं। वे तीर्थंकर बन जाते हैं। मठका प्रीय उनकी स्थाऐं विघ्न करता है; पर पार्श्वनाथ अपनी साधनासे विचलित नहीं होते । केवलज्ञान प्राप्त होनेपर वे प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में सम्मेदाचलसे निर्वाण प्राप्त करते हैं ।
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नायक पार्श्वनाथका जीवन अपने समय के समाजका प्रतिनिधित्व करता हुआ लोक-मंगलकी रक्षा के लिए बद्धपरिकर है। कविने कथामें क्रमबद्धताका पूरा निर्वाह किया है । मानवता और युगभावनाका प्राधान्य सर्वत्र है; पर स्थिति-निर्माण में पूर्वके नौ भवोंकी कथा जोड़कर कविने पूरी सफलता प्राप्त की है । जीवनका इतना सर्वांगीण और स्वस्थ विवेचन एकाध महाकाव्य में हो मिलेगा । इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओं और व्यक्तियोंके बीच अंकित हुआ है । अत इसमें मानव के रागद्वेषों की क्रीड़ाके लिए विस्तृत क्षेत्र है । मनुष्यका ममत्व अपने परिवार के साथ कितना अधिक रहता है, यह पार्श्वनाथके जीव मरुभूतिके चरित्रसे स्पष्ट है ।
वस्तुव्यापार-वर्णन, घटना- विधान और दृश्य-योजनाओं की दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है । कवि जीवनके सत्यको काव्य के माध्यम से व्यक्त करता हुआ कहता है
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बालक - काया कूपल लोग | पत्ररूप जीवनमें होय ॥ पाको पात जरा तन करें। काल-बयारि चलत पर झरे ॥ मरन - दिवसको नेम न कोय । याते कछु सुधि परे न लोय ।। एक नेम यह तो परमान | जन्म धरे सो मरे निदान ||४|६५-६७ अर्थात् किशोरावस्था कोंपलके तुल्य है । इसमें पत्रस्वरूप यौवन अवस्था है। पत्तोंका पक जाना जरा है। मृत्युरूपी बायु इस पके पत्तेको अपने एक हल्के धक्के से ही गिरा देती है। जब जीवनमें मृत्यु निश्चित है तो हमें अपनी महायात्रा के लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिए ।
२७४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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