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देवके दश जन्मोंको कथा गोनोंमें निबद्ध की है । कथावस्तु २५ पबन्धोंमें निभक्त . है। प्रथम प्रबन्धमें महाबलकी प्रशंसा, द्वितीयमें महाबलका वैराग्योत्पादन, तृतीयमें ललिताङ्गका वनविहार, चतुर्थ में श्रीमतीका जातिस्मरण, पंचममें वनजंघका पट्टकार्थ विवरण, षष्ठमें वनजंध और श्रीमतीके सौन्दर्यका चित्रण, सप्तममें श्रीमतीका विरहवर्णन, अष्टममें भोगभूमिवर्णन, नवममें आर्यका-गुरुगुण स्मरण, दशममें श्रीधरका स्वर्गवैभववर्णन, एकादशमें सुविधि पुत्रसम्बोधन, द्वादशमें अच्युतेन्द्र के दिव्य शरीरका वर्णन, प्रयोदशमें वननाभिके शारीरिक सौन्दर्यका चित्रण, चतुर्दशमें सर्वार्थसिद्धि विमानका चित्रण, पन्द्रहवेंमें मरुदेवीका निरूपण, सोलहवेंमें मरुदेवीके स्वप्न, सप्तदशमें प्रभात वर्णन, अठारहवेम जिनजन्माभिषेक, उन्नीसवेंमें परमौदारिक शरीर, बीसवेमें ऋषभदेवका वैराग्य, इक्कीसव में ऋषभदेवका तप, बाइसमें समवशरणका वर्णन, तेइसमें समवशरणभूमिका चित्रण और चौबीसवेंमें अष्टप्रातिहारियों का कथन आया है। प्रसंगवश ललितादेवको कथाको पर्याप्त विस्तृत किया गया है । गोतिकाव्यको दृष्टिसे यह काव्य अत्यन्त सरस और मधुर है । कवि श्रीमतीको भावनाका चित्रण करता हुआ कहता है---
'चन्दलिप्तसुवर्णशरीरसुधौतबसनबरपोरम्, मन्दरशिखरनिभामलमणियुतसन्नुलमुकुटमुदारम् । कथमिह लप्स्ये दिविजवरं मानिनिमन्मथकेलिपरम् ।। इन्दुविद्वर्यानभमणिकुण्डलमण्डितगण्डयगेशम्,
चन्दिरदलसमनिटिलविराजितसुन्दरतिलकसुकेशम् ॥' प्रमेयरत्नमालालंकार-यह नव्यशैलीमें लिखी गई प्रमेयरत्नमालाकी टीका है । लेखकने प्रमेयरत्नमालामें आये हुए समस्त विषयोंका स्पष्टीकरण नव्यशेलीमें किया है। प्रमाणके लक्षणको व्याख्या करते हुए न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंसे विषय-सामग्री ग्रहणकर आये हुए प्रमेयोंका स्पष्टीकरण किया है। प्रमाण-लक्षणमें सांख्य, प्राभाकर आदिके मतोंकी भी समीक्षा की है । इस प्रथको चार विशेषताएं हैं
१. मूल मुद्दोंका स्पष्टीकरण ।
२. व्याख्यानको विस्तृत और मौलिक बनानेके हेतु ग्रन्थान्तरोंके उद्धरणोंका समावेश ।
३. गढ़ विषयोंका पद-व्याख्यानके साथ स्पष्टीकरण |
४. विषयके गांभीर्यके साथ प्रौढ़भाषाका समावेश । ८८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा