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इस प्रकार ग्रन्थकारने अपने इस प्रभेयरत्नमालालंकारको एक स्वतंत्र ग्रंथका स्थान दिया। वहाँ उदाहरणार्थं कुछ संदर्भांश उपस्थित किया जाता है
ज्ञानको प्रमाण सिद्ध करते हुए बौद्धमत की समीक्षा निम्न प्रकार की है"अत्राहुर्योद्धा, अद्वेतिनश्च - ज्ञानं द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पकं चेति । तत्र नयनोन्मीलनान्तरं निष्प्रकारकं" वस्तुस्वरूपमात्रविषयकं ज्ञानं यज्जायते तनिर्विकल्पकम् । उक्तं च-
कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रथमं निर्विकल्पकम् |
बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् । इति ॥
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कल्पना पदवाच्यत्वं तदपोढ़ तदविषयकमित्यर्थः । क्षणिकपरमाणुरूपस्वलक्षणात्मकशुद्धवस्तुविषयकं सौगत्तमते निर्विकल्पकम् । अपोहस्य पदवाच्य स्वेऽपि स्वलक्षणे तदभावात् स्वलक्षण विषयके निर्विकल्पके पदवाच्यत्वस्य भानं न सम्भवति । न च स्वलक्षणस्य पदवाच्यत्वं कुतो नास्तीति वाच्यम् । पदवाच्यत्वं हि पदसङ्केतः । स खलु व्यवहारार्थः संकेतकालमारभ्य व्यवहारकालपर्यन्तस्थायिनि पदार्थे युज्यते ।"
प्रमेयरत्नमालालंकार में अनेक नवीन तथ्यों का समावेश लेखकने किया है।
अरुणमणि
अरुणमणि भट्टारकतकीत्तिके प्रशिष्य और बुधराघवके शिष्य थे। इन्होंने ग्वालियर में जैनमन्दिरका निर्माण कराया था। इनके ज्येष्ठ शिष्य बुधरत्नपाल थे, दूसरे वनमाली और तीसरे कानरसिह । अरुणमणि इन्हीं कानरसिंह के पुत्र थे| इन्होंने अजितपुराण के अन्त में अपनी प्रशस्ति अंकित की है | अरुणमणिका अपरनाम लालमणि भी है। प्रशस्ति में बताया है कि काष्ठासंघ में स्थित माथुरगच्छ और पुष्करगणमें लोहाचार्यके अन्वय में होनेवाले भट्टारक धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीर्ति, यशः कीर्ति, जिनचन्द्र श्रुतकीत्तिके शिष्य बुधराघव और उनके शिष्य बुधरत्नपाल, वनमाली बोर कानरसिंह हुए है। इनमें कानरसिंहके पुत्र अरुणमणि या लालमणि है ।
स्थितिकाल
अजितपुराण में ग्रन्थका रचनाकाल अंकित है, जिससे अरुणमणिका समय निर्विवाद सिद्ध होता है। प्रशस्ति में लिखा है
रस-वृष-यति-चन्द्रे नियमित सितवारे वैजयंती - दशाम्यां ।
ख्यातसंवत्सरे (१७१६ ) ऽस्मिन्
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८९