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इस ऐतिहासिक विवेचनसे यह स्पष्ट होता है। कि सुगन्धदशमीकथाके कर्ता उदयचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरिमें अपनी दो रचनाएँ पूर्ण की थी उसका निर्माण यदुवंशी त्रिभुवनपालने अपने नामसे सन् १०४४ ई० के कुछ काल पश्चात् कराया। चुनड़ीकी रचना अजयनरेन्द्रके जिस राजविहार में रहकर को थी वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश द्वारा निर्मित हुआ होगा, जिनका ११५० ई० का उत्कीर्ण लेख महावनमें मिला है। सन् १९९६ ई० में मुसलमानोंके आक्रमणसे त्रिभुवनगिरि यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकल चुका था । अतएव त्रिभुवनगिरिमें लिखे गये उक्त दोनों ग्रंथोंका रचनाकाल ११५० ई०-११९६ ई० के बीच संभव है। चूनड़ीकी रचनाके समय उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे, पर सुगन्धदशमीकथाको रचनाके समय के गृहस्थ थे । अतएव बालचन्द्र का समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी माना जा सकता है । रचना
कांब उदयचन्द्रकी 'सुअंधदहमीकहा' नामको एक ही रचना उपलब्ध है। सुगन्धदशमी कथामें बताया गया है कि मुनिनिन्दाके प्रभावसे कुष्ठरोगकी उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीरमें दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरणके प्रभावसे पापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्च कुलमें जन्म होता है। कथामें बताया है कि एक बार राजा-रानी दोनों वन-बिहारके लिए जा रहे थे कि सुदर्शन नामक मुनि आहारके लिए आते दिखाई दिये। राजाने अपनी पत्नीको उन्हें आहार करानेके लिये वापस भेजा । रानीने कद्ध हो मुनिराजको कड़वी तुम्बीका आहार करवाया। उसकी वेदनासे मुनिका स्वर्गवास हो गया । राजाको जब यह समाचार मिला तो उन्होंने उसे निरादरपूर्वक निकाल दिया। उसे कुष्ठ व्याधि हो गई और वह सात दिनके भीतर मर गई। कुत्ती, सूकरी, शृगाली, गदही आदि नीच योनियोंमें जन्म लेकर अन्ततः पूतगन्धाके रूपमें उत्पन्न हुई।
सुव्रता आयिकासे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त सुनकर पूतगन्धाको बड़ी आत्मग्लानि हुई और उसने मुनिराजसे उस पापसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सुगन्धदशमीव्रत्त ग्रहण किया और इस व्रतके प्रभावसे दुर्गन्धा अपने अगले जन्ममें रनपुरके सेठ जिनदत्तकी रूपवती पुत्री तिलकति हुई। उसके जन्मके कुछ ही दिन बाद उसको माताका देहान्त हो गया। तथा उसके पित्ताने दूसरा विवाह कर लिया। इस पलोसे उसे तेजमतो कन्या उत्पन्न हुई । सौतेली माँ अपनी पुत्रीको जितना अधिक प्यार करती थी, तिलकमतीसे उतना ही द्वेष । इस कारण इस कन्याका जीवन बड़े दु:ससे व्यतीत होने सामना कियानों के बयस्क होनेपर पिताको विवाहकी चिन्ता हुई। पर इसी समय उन्हें पहल
भावार्यतुल्य काम्पकार एवं सेखक : १८७