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२. पण्डितपूजा-आत्माके अस्तित्व आदिका कथन करते हुए इसमें आत्मदेवदर्शन, निय-गुरु-सेवा, जिनवाणीका स्वाध्याय. इन्द्रिय-दमन आदि क्रियाओंको आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका साधन बताया है। सम्यग्दृष्टि ही आस्तिक होता है और आस्तिक ही पूर्ण ज्ञानी एवं परमपदका स्वामी होता है। नास्तिकको संसारमें ही भ्रमण करना पड़ता है, इत्यादिका सुन्दर विवेचन इसमें है।
३. कमलयसीसी-इसमें जीवनको केचा उठाने के लिए आठ बातोंका निर्देश है-१. चिन्तारहित जीवन-यापन, २.सुखी और प्रसन्न रहना, ३. संसारको रंगमंच समझना, ४, मनको स्वच्छ रखना, ५. अच्छे कार्यों में प्रमाद न करना, सहनशील बनना और परोपकारमें निरत रहना, ६. आडम्बर और विलासतासे दूर रहना, ७. कर्त्तव्यका पालन तथा ८. निर्भय रहना ।
४. श्रावकाचार-इसमें श्रायकके पांच अणुव्रत, तीन गुणप्रप्त और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतोंके पालनपर बल देते हए बारह अव्रत (५. मिथ्याभाव, ३. मूढ़ता और ४. कषायभाव)के त्यागका उपदेश दिया गया है।
५. शानसमुच्चयसार- इसमें जानके महत्त्वका कथन किया है।
६. उपदेशशुद्धसार-आत्माको परमात्मा स्वरूप समझकर उसे शुद्ध-बुद्ध बनाने के लिए सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्रको अपनानेका उपदेश है।
७. त्रिभंगीसार-इसमें कर्मास्रवके कारण तीन मिथ्याभावों और उनके निरोधक कारणोंको बताते हुए आयुबन्धकी विभागीका कथन किया है ।
८. चौबोसठाना-- इसमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १८ विधियोंसे जीवोंके भावों द्वारा उनकी उन्नति-अवनत्तिको दिखाया गया है ।
९. ममलपाहई-इसमें १६४ भजनों के माध्यमसे ३२०० गाथाओंमें निश्चयनयको अपेक्षासे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदिका विवेचन है ।
१०. खातिकाविशेष-किन-किन अशुभ भावनाओंसे जीव निम्न गतियोंको प्राप्त होता है, इसका इसमें कथन है।
११. सिद्धिस्वभाव-इसमें किन शुभ भावोंसे आत्मा उन्नति करता और सम्यक्त्वके उन्मुख होता है, इसका निरूपण है।
१२. सुग्नस्वभाव--ध्यानयोगके द्वारा राग-द्वेषके विकल्पोंकी शून्यता हो आत्मस्वरूपको उपलब्धिका परम साधन है, इसका प्रतिपादन है ।
१३. छब्रस्थवाणी-इसमें अनन्तचतुष्टय और रत्नत्रययुक्त आत्मा ही उपादेय और गेय है तथा मिथ्याभावादिसे युक्त आत्मा हेय है । उपादेय २४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा