________________
'दंसणकथणकरंडु' को १६वीं सन्धि तक 'पंडित' विशेषण उपलब्ध होता है और इसके पश्चात् 'मुनि' विशेषण प्राप्त होने लगता है । कथाकोशकी रचना ' दर्शन कथा रत्नकरण्ड' के पश्चात् हुई होगी। श्री डॉ० हीरालालजीने इस ग्रंथका रचनाकाल ई० सन् १०७०के लगभग माना है ।"
1
कथाकोषकी प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि महाश्रावक कृष्णके परिवारकी प्रेरणा से यह प्रथ लिखा है । इनके पिता सज्जन मूलराजनरेशके धर्मस्थान के गोष्ठीकार थे । ये मूलराज वही है, जिन्होंने गुजरात में वनराज द्वारा स्थापित चावड़ा वंशको च्युतकर ई० सत् ९४९में सोलंकी (चालुक्य) वंशकी स्थापना की थी। प्रशस्ति में यह भी बताया गया है कि ग्रन्थकार के परदादागुरु श्रुतकीर्तिके चरणोंकी पूजा गांगेय भोजदेव आदि बड़े-बड़े राजाओंने को थी । डॉ० हीरा. लालजीका अनुमान है कि गांगेय निश्चयतः डाहल (जबलपुर के आस-पासका प्रदेश) के वे ही कलचुरी नरेश गांगेयदेव होता वाहिए की कील पश्चा सन् १०१९ के लगभग सिंहासनारूढ़ होकर सन् १०३८ तक राज्य करते रहे । भोजदेव धारा के ये ही परमार वंशी राजा है, जिन्होंने ई० सन् १००० से १०५५ तक मालवापर राज्य किया तथा जिनका गुजरात के सोलंकी राजाओंसे अनेकबार संघर्ष हुआ । अतएव श्रीचन्द्रका समय ई० सन्की ११वीं शती होना चाहिए। रचनाएँ
श्रीचन्द्र मुनिकी दो रचनाएं उपलब्ध है- 'दंसणकयणकरंडु' और 'कहाकीसु' । दंसणरकहरयणकरंडु
प्रथम ग्रन्थ में २१ सन्धि हैं। प्रथम सन्धिमें देव, गुरु और धर्म तथा गुणदोषोंका वर्णन है। इसमें ३९ कड़वक हैं । उत्तमक्षमादि दश धमं, २२ परीषह, पंचाचार, १२ तप आदिका कथन किया है। पंचास्तिकाय और षद्रव्यका वर्णन भी इसी सन्धिमें आया है । समस्त कमौके भेद-प्रभेदका कथन भी प्राप्त होता है | कविने नामकर्मको ४२ प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए लिखा हैणारय- तिरिय णराण, सह देवाउ चउत्प । णामहो णामहं भेउ, सुण एवह बायालीस ||३६|| गइ जाइ णामु तणु अंगु-बंगु, णिम्माणय बंधण पाम अंगु । संघाणामु ठाणणामु, संहृणणष्णामु भासह अकामु ॥ रस फास गंधु अणुपुब्विणामु, वरणा गुरुल उवधायणामु । परघायातप उज्जोवणामु उस्सास विहायगई सामु ||
१. 'कहाको' प्राकृत-प्रन्थ-परिषद, अहमदाबाद, सन् १९६९, प्रस्तावना, पु०५ १३४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा