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साहारण पत्तेयंगणाम. तस यावर सुहुमासहुमणाम् ॥ सोहग्गणामु दोहग्गणाम्, सुस्सर दुस्सर सुह-असुहणाभु ॥ पज्जत्त इयर थिर अधिर नामु आदेउ तहा उणादेउणामु || जसकित्ति अजस कितीण णामु, तित्थयरणामु सिव सोक्खधाम । इय पिडापिडा पर्याद्धि जणिय, चालीसदु जाहिय भेव भणिय । णामक्ख होंति तेणवइ भेय, विवरिज्जहि जइ जाणह विर्णय । द्वितीय सन्धिमें सुभौम चक्रवत्र्त्तीको उत्पत्ति और परशुरामके मरणका वर्णन किया गया है। तृतीय सन्धिमें पद्मरथ राजाका उपसर्ग- -सहन, आकाशगमन, विद्यासाधन और अंजन चोरका निर्वाण-गमन वर्णित है । चतुर्थं सन्धिमें अनन्तमतीकी कथा आयी है। पंचम सन्धिमें निविचिकित्सागुणका वर्णन आया है । षष्ठ सन्धिमें अमददृष्टिगुणका वर्णन है। सप्तम सन्धिमें उपगूहन ओर स्थितिकरण के कथानक आये है । अष्टम सन्धिमें वात्सल्य-गुणकी कथा वर्णित है | नवम सन्धिमें प्रभावना अंगकी कथा आयी है। दशम सन्धिमें कौमुदी यात्राका वर्णन है । ग्यारहवीं सन्धिमें उदितोदय सहित उपदेशदान वर्णित है । बारहवीं सन्धिमें परिवारसहित उदितोदयका तपश्चरण-ग्रहण आया है | १३वीं सन्धिमें बेत्तालकथानक वर्णित है । १४वीं सन्धिमें मालाकथानक आया है । १५वीं सन्धिमें सोमश्रीकी कथा वर्णित है । १६वीं सन्धिमें काशीदेश, वाराणसी नगरीके वर्णनके पश्चात् भक्ति और नियमोंका वर्णन है १७वीं सन्धिमें अनस्तमित अर्थात् रात्रिभोजन त्यागवत की कथा वर्णित है । १८वी सन्धिमें दया- धर्मके फलको प्राप्त करने वालोंकी कथा वर्णित है । १९वीं सन्धिमें नरकग सिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । २०वीं सन्धिमें बिना जाने हुए फल - भक्षण के त्याग की कथा वर्णित है । २१वीं सन्धिमें उदितोदय राजामोंको परिव्रज्या और उनका स्वर्गगमन आया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के आठ अंग, व्रतनियम, रात्रिभोजनत्याग आदिके कथानक वर्णित हैं । कथाओं के द्वारा कविने धर्म-तत्त्वको हृदयंगम करानेका प्रयास किया है।
कथाकोश - इस ग्रन्थमें ५३ सन्धियां है और प्रत्येक सन्धिमें कम-से-कम एक कथा अवश्य आयी है। ये सभी कथाए धार्मिक और उपदेशप्रद है । कथाओंका उद्देश्य मनुष्यके हृदय में निर्वेद-भाव जागृत कर वैराग्यको ओर अग्रसर करना है । कथाकोषमें आई हुई कथाएँ तीर्थंकर महावीरके कालसे गुरुपरम्परा द्वारा निरन्तर चलती आ रही हैं। प्रथम सन्धिमें पात्रदान द्वारा धनकी सार्थकता प्रतिपादित कर स्वाध्यायसे लाभ और उसकी मावश्यकतापर जोर दिया है। इस सन्धिके अन्त में सोमशर्मा ज्ञानसम्पादनसे निराश हो
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३५