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वैयाकरणोंके बृहत् कुम्भका उत्पाटन करनेमें उद्यत बुद्धिवाले भट द्वारकवर्यों में सूर्यके समान श्री जिनसेन भट द्वारक हुए।
उनके पट्टरूपी उदयाचलको प्रकाशित करनेके लिये सूर्यके समान, श्री जिनेन्द्र भगवानके मुखसे विनिर्गत सप्तभङ्गी और नय आदिसे युक्त द्वादशांग रूपी समुद्रका वर्द्धन करनेके लिये पूर्ण चन्द्रमाके समान, अज्ञान और जड़तासे मुद्रित भव्यजनों के चित्तसरोजको विकसित करनेवाले, अपने वचन की रचनाचातुरीके आडम्बर से बृहस्पतिको भी चमत्कृत करनेवाले, अपने गणाग्रवल्लीकाव्यको सींचने के लिये धाराके समान, करोड़ों मुकुटवादियोंके राजराजेश्वर, चक्रवर्ती श्री समन्तभद्र भट्टारक हुए
श्रीमान् राजेश्वर गुरु वसुन्धराचार्य महावादियोंके पितामह विद्वानोंमें कल्पवृक्षके चक्रवर्ती कड़ि-कड़ि (?) वाण परिग्रह विक्रमादित्य मध्याह्नके समय, समान, सेनगण के अग्रगण्य, पुष्करगच्छ - विरुदावलीसे विराजमान दिल्ली-सिंहासनके अधिपति छत्रसेनकी तपस्याका अभ्युदय करनेवाली समृद्धिकी सिद्धिके लिये भव्यजनोंके द्वारा किये गये जिनेश्वराभिषेकको सब लोग अवधारण करें ||५०||
विरुदावली
"स्वस्ति श्रीजिननाथाय स्वस्ति श्रीसिद्धसूरिणे ( 2 ) 1 स्वस्ति पाठकसाधुभ्यां स्वस्ति श्रीगुरवे तथा ॥१॥ मंगलं भगवानर्हं मंगलं सिद्धसूरयः । उपाध्यायस्तथा साधुर्जेन धर्मोऽस्तु मंगलम् ||२|| सद्धर्मामृतवर्षहर्षित जगज्जन्तुर्यथाम्भोधरः । स्थैर्यान्मेरुरगाधतान्धिखनिसारो पारक्षमः ॥ दुर्वारस्मरवारिवापवनः शुम्भप्रभाभास्करः । चन्द्रः सौम्यतया सुरेन्द्रमहितो वीरः श्रियो वः क्रियात् ॥३॥ स्वस्ति श्रीमूलसंधे प्रवरबलगणं कुन्दकुन्दान्वये च । विद्यानन्दप्रबन्धं विमलगुणयुतं मल्लिभूषं मुनीन्द्रम् ॥ लक्ष्मीचन्द्रं यतीन्द्रं विबुधवरमुतं वोरचन्द्र स्तुवेऽहम् । श्रीमज्ज्ञानादिभूष सुमतिसुखकरं श्रीप्रभाचन्द्रदेवम् ॥४॥
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श्री जिननाथ मंगलमय हों, श्रीसिद्ध और सूरि मंगलमय हों, उपाध्याय और साधु मंगलमय हों और श्री गुरु मंगलमय हों ॥१॥
भगवान् अर्हत मंगलमय हो, सिद्ध और आचार्य मंगलमय हों, उपाध्याय, साधु तथा जैनधर्म मंगलमय हों ||२||
४३०: तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा