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गंगवंशके राजाओंके अतिरिक्त कदम्बवंशके राजाओंमें काकुस्थवर्मा के पौत्र मृगेश वर्माने ५वीं शताब्दीमें राज्य किया । राज्यके तीसरे वर्ष में अंकित किये गये ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि इसने अभिषेक, उपलेपन, कूजन, भग्नसंस्कार ( मरम्मत) और प्रभावनाके लिये भूमि दान दी । एक अन्य ताम्रपत्रसे विदित है कि मृगेशवर्माने अपने राज्यके वें वर्ष में अपने स्वर्गीय पिताकी स्मृतिमें पलाशिका नगरमें एक जिनालय बनवाया था और उसकी व्यवस्थाके लिये भूमि दान में दी थी । यह दान उसने श्रापनियों तथा कूर्वक सम्प्रदायके नग्न साधुओंके निमित्त दिया था । इस दानके मुख्य ग्रहीता जैनगुरु दानकीति और सेनापति जयन्त' थे । मृगेशवर्मा के उत्तराधिकारी रविवर्मा और उसके भाई भानुवर्माने भी जैन शासनकी उन्नति की है । राजा रविवर्मा के पुत्र हरिवर्माने अपने राज्यकालके चतुर्थ वर्ष में एक दानपत्र प्रचलित किया था, जिससे ज्ञात होता है कि उसने अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे कूक सम्प्रदायके वारिषेणाचार्यको वसन्तबाटक ग्राम दानमें दिया था । इस दानका उद्देश्य पलाशिकामें भारद्वाजवंशी सेनापतिसिंहके पुत्र मृगेशवर्मा द्वारा निर्मित जिनालय में वार्षिक अष्टाहूनिक पूजाके अवसरपर कृताभिषेकके हेतु धन दिये जानेका उल्लेख है । इसी राजाने अपने राज्यके ५ वें वर्ष में सेन्द्रकवंशके राजा भानुशक्तिकी प्रार्थनासे धर्मात्मा पुरुषोंके उपयोग के लिए तथा मन्दिरकी पूजाके लिए 'मरदे' नामक गाँव दानमें दिया था। इस दानके संरक्षक धर्मनन्दि नामके आचार्य थे !
जैनाचार्योंने राष्ट्रकूट वंशको भी प्रभावित किया है । इस वंशका गोविन्द तृतीयका पुत्र अमोघवर्ष जैनधर्मका महान् उन्नायक, संरक्षक और आश्रयदाता था । इसका समय ई० सन् ८१४-८७८ है । अमोघवर्षने अपनी राजधानी मान्यखेटको सुन्दर प्रासाद, भवन और सरोवरोंसे अलंकृत किया । वीरसेनस्वामीके पट्टशिष्य आचार्य जिनसेनस्वामी इसके धर्मगुरु थे। महावीराचार्यने अपने गणितसारसंग्रहमें अमोघवर्षकी प्रशंसा की है ।
आर्यनन्दिने तमिल देशमें जैनधनंके प्रचारके लिये अनेक कार्य किये। मूर्तिनिर्माण, गुफा निर्माण, मन्दिरनिर्माणका कार्य ई० सन् की ८वीं, रवीं शती में जोर-शोर के साथ चलता रहा । चितराल नामक स्थानके निकट तिरुचानट्टु नामकी पहाड़ीपर उकेरी गयी मूर्तियाँ कलाकी दृष्टिसे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं ।
होय्सल राजवंश के कई राजाओंने जैनकला और जैनधर्मकी उन्नति के लिए
१. जैन शिलालेखसंग्रह, द्वितीय भाग, अभि० सं० ९५, पृ०७३ ।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३४३