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रचनाएँ
१. धनञ्जयनिघण्टु या नाममाला-छात्रोपयोगी २०० पद्योंका शब्दकोश है | इस छोटे-से कोशमें बड़े ही कौशलसे संस्कृत भाषाके आवश्यक पर्यायशब्दोंका चयनकर गागरमें सागर भरने की कहावत चरितार्थ की है । इस कोशमें कुल १७०० शब्दोंके अर्थ दिये गये हैं। शब्दसे शब्दान्तर बनानेकी प्रक्रिया भी अद्वितीय है । यथा-पृथ्वी के आगे 'घर' शब्द या धरके पर्यायवाची शब्द जोड़ देनेसे पर्वतके नाम; 'पति' शब्द या पतिके समानार्थक स्वामिन् आदि जोड़ देनेसे राजाके नाम एवं 'रुह' शब्द जोड़ देनेसे वृक्षके नाम हो जाते हैं ।
इस नाममालाके साथ १६ श्लोक प्रमाण एक अनेकार्थनाममाला भी सम्मिलित है । इसमें एक शब्दके अनेकार्थीका कथन किया गया है।
२. विषापहारस्तोत्र-भक्तिपूर्ण ३९ इन्द्रवज्रा वृत्तोंमें लिखा गया स्तुतिपरक काव्य है। इस स्तोत्रपर वि० सं० १६वीं शतीकी लिखी पार्श्वनाथके पुत्र नागचन्द्रकी संस्कृत टीका भी है । अन्य संस्कृतटीकाएं भी पायी जाती हैं।
३. द्विसन्धानमहाकाव्य-सन्धानशेलीका यह सर्वप्रथम संस्कृतकाव्य है । कविने आद्यन्त राम और कृष्ण चरितोंका निर्वाह सफलताके साथ किया है। इस पर विनयचन्द्रपण्डितके प्रशिष्य और देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र, रामभट्टके पुत्र देववट एवं बदरीको संस्कृतटीकाएँ भी उपलब्ध हैं ।
यह महाकाव्य १८ स!में विभक्त है। इसका दूसरा नाम राघव-पाण्डवीय भी है। एक साथ रामायण और महाभारतकी कथा कुशलतापूर्वक निबद्ध की गयी है । प्रत्येक श्लोकके दो-दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थसे रामचरित निकलता है और दूसरे अर्थसे कृष्णचरित । कविने सन्धान-विधामें भी काब्धतत्त्वोंका समावेश आवश्यक माना है
चिरन्तने वस्तुनि गच्छति स्पृहां विभाव्यमानोऽभिनव प्रियः । रसान्त श्चित्तहरजनोऽन्धसि प्रयोगरम्यरुपदंशकैरिव ॥३॥ स जातिमार्गो रचना च साऽऽकृतिस्तदेव सूत्रं सकलं पुरातनम् । वित्तिता केवलमक्षरैः कृतिनं कन्चुकश्रीरिब वर्ण्यमृच्छति ॥४॥ कवेरपार्था मधुरा न भारती कथेव कर्णान्तमुपैति भारती। तनोति सालकतिलक्षणान्विता सतां मुदं दाशरथेर्यथा तनुः ।।५।। अर्थात् चित्तके लिये आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित, फलतः नवीन
१. विसन्धानमहाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १५३-५ । ८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा