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कीयने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासमें धनञ्जयका समय पाठक द्वारा अभिमत ही स्वीकार किया है। पर धनञ्जयका समय ई० सन् १२वीं शती नहीं है। यतः इनके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख अचार्य प्रभाचन्द्रने अपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड'में किया है। प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् ११वीं शतोका पूर्वार्द्ध है। अतएव धनञ्जय सुनिश्चितरूपसे प्रभाचन्द्रके पूर्ववर्ती है ।
वादिराजने अपने 'पार्श्वनाथचरित' महाकाव्यमें द्विसन्धानमहाकाव्यके रचयिता धनञ्जयका निर्देश किया है और वादिराजका समय १०२५ ई० है । अतएव धनञ्जयका समय इनसे पूर्व मानना होगा । वादिराजने लिखा है
अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहः ।
वाणा धनञ्जयोन्मुक्ता कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥ पाश्वं. १२२६ जल्हणने राजशेखरके नामसे सूक्तिमुक्तावलीमें धनम्जयकी नाममालाके निम्नलिखित श्लोकको उद्धत किया है
द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनजयः ।
यथा जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः ।। यह राजशेखर काव्यमीमांसाके रचयिता राजशेखर ही हैं। इनका समय १०वीं शती सुनिश्चित है। अतः धनञ्जयका समय १०वीं शती के पूर्व होना दहिये।
डॉ. होरालालजीने 'षट्खण्डागम' प्रथम भागको प्रस्तावनामें यह सूचित किया है कि जिनसेनके गुरु वीरसेन स्वामीने धवलाटीकामें अनेकार्थनाममालाका निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपमें उद्धृत किया है
हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये ।
प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ।। धवलाटीका वि० सं० ८०५-८७३ (ई० सन् ७४८-८१६)में समाप्त हुई थी। अतः धनञ्जयका समय ९वीं शतोके उपरान्त नहीं हो सकता।
धनञ्जयने अपनी नाममालामें 'प्रमाणमकलङ्कस्य' पद्यमें अकलंकका निर्देश किया है। अतएव वे अकलंकके पूर्ववर्ती भो नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंके आधार पर धनञ्जयका समय अकलंकदेवके पश्चात् और धवलाटीकाकार वीरसेनके पूर्व होनेसे ई० सन् को ८वीं शत्तीके लगभग है । १. A History of Sanskrit literature by A. B. Keeth, Page 173 । २, प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४०२, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई।। ३. धबलाटीका, अमरावतीसंस्करण, प्रथम जिल्द, पृ० ३८७ ।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ७