________________
इन्द्रत्वं महिमादिभिश्च सहितं प्राप्तं न संसारिभिः तत्प्राप्तो भवहेतुसंसृतिलताच्छेदे कुतः संयमः ॥ कविपरमेश्वर श्लोक |
कषायोद्रेककालुष्यं व्रतदर्शनसत्तपः । दूषयत्यचिराद्राजन् ततः क्रोधादि वर्जयेत् ॥
त्यागेन लोभं क्षमया प्रकोपं
मानं मृदुत्वेन मनोहरेण । वृत्तेन मायामृजुनाभिवृद्धिं
नोट
X
X
तत्सुसाधुवचः सत्यं प्राणिपीडापराइ मुखम । येन सावद्यकर्माणि न स्पृशन्ति भयादिव ॥ नाग्निंदहत्युच्च शिखाकलापस्तीव्रं विषं निर्विषतामुपैति । शस्त्रं शतद्योतविभूषणत्वं सत्येन किं ते न भवेदभीष्टम् ' ।। काव्य, आचार और दर्शन इन तीनोंका समन्वय इन तीनों पद्योंमें पाया जाता है । कवि परमेश्वर पौराणिक जैनमान्यताओंसे भी सुपरिचित हैं। वास्तव - में उनके द्वारा रचित पुराणग्रन्थसे ही जैन साहित्य में पुराण साहित्यका प्रचार और प्रसार हुआ है और कवि परमेश्वरकी रचना ही समस्त पुराण साहित्यका मूलाधार है ।
महाकवि धनञ्जय
महाकवि धनञ्जयके जीवनवृत्त के सम्बन्धमें विशेष तथ्योंकी जानकारी उपलब्ध नहीं है । द्विसन्धानमहाकाव्य के अन्तिम पद्यकी व्याख्या में टीकाकारने इनके पिताका नाम वसुदेव, माताका नाम श्रीदेवी और गुरुका नाम दशरथ सूचित किया है । कवि गृहस्थधर्म और गृहस्थोचित षट्कर्मीका पालन करता था । इनके विषापहारस्तोत्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि कविके पुत्रको सर्पने इस लिया था, अतः सर्पविषको दूर करनेके लिये ही इस स्तोत्रकी रचनाकी गयी है ।
स्थितिकाल
कविके स्थितिकाल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । इनका समय डॉ० के० बी० पाठकने ई० सन् १९२३ - ११४० ई० के मध्य माना है । डॉ० ए० बी०
१. जनसिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ८५-८६ ।
६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा