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श्रृंगार आदि रसों, तथा शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त, सुन्दर वर्णों द्वारा मुम्फित रचना प्राचीन होने पर भी आनन्दप्रद होती है ।
उपजाति आदि छन्द रहते हैं, पद-वाक्यविन्यास भी पूर्वपरम्परागत होता है, गद्य-पद्यमय हो आकार रहता है और सबके सब वहीं पुराने बलकारनियम रहते हैं । तो भी केवल अक्षरोंके विन्यासको बदल देनेसे ही रचना सुन्दर हो जाती है ।
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जो वाणी अर्थयुक्त माधुर्यादि गुणोंसे समन्वित अलंकारशास्त्र और व्याकरण के नियमोंसे युक्त होती है, वही सज्जनोंको प्रभुदित करती है । इस प्रकार कवि धनञ्जयने सन्धानकाव्य में भी काव्योचित गुणांको आव इक माना है और उनका प्रयोग भी किया है ।
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प्रस्तुल काव्य में राम और कृष्ण के साथ पाण्डवों का भी इतिवृत्त आया है । काव्यका आरम्भ तीर्थंकरोंकी बन्दनासे हुआ है, इतिवृत्त पुराणप्रसिद्ध है, मन्त्रणा, दूतप्रेषण युद्धवर्णन, नगरवर्णन, समुद्र, पर्वत, ऋतु चन्द्र, सूर्य, पादप, उद्यान, जलक्रीड़ा, पुष्पावचय, सुरतोत्सव आदिका चित्रण है । कथानकमें हर्ष, शोक, क्रोध, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि भावों का संयोजन हुआ है । शाब्दी क्रीड़ाके रहने पर भी रसका वैशिष्ट्य वर्त्तमान है। महत्कार्यं और महत् उद्देश्यका निर्वाह भी किया गया है । कविने किसी भी अस्वाभाविक घटनाको स्थान नहीं दिया है । विवाह, कुमारकीड़ा, युवराजावस्था, पारिवारिक कलह, दासियोंकी वाचलता आदिका भी चित्रण किया है। कविने श्रृंगार वीर, भयानक और वीभत्स रसका सम्यक् परिपाक दिखलाया है । यहाँ उदाहरणार्थ भयानक रसके कुछ पद्म प्रस्तुत किये जाते हैं
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पतत्रिनादेन भुजङ्गयोषितां पपात गर्भः किल तार्क्ष्यशङ्कया । नभश्चरा निश्चितमन्त्रसाधना वने भयेनास्यपगारमुद्यताः || १६ || सुमन्ततोऽप्युद्गतधूमकेतवः स्थितोर्ध्वबाला इव तत्रदिशः । निपेतुमल्काः कलमाग्रपिङ्गला यमस्य लम्बाः कुटिला जटा इव ||१७||
राधव पाण्डवराजाओ के पराक्रमपूर्ण युद्धका आतंक सर्वत्र छा गया । उनके वाणकी टंकारसे गरुडको ध्वनिका भय हो जानेरो नागपत्नियोंके गर्भपात हो गये । खेचर भयविह्वल हो स्तब्ध हो गये । वे तलवारको म्यानसे निकाल नसके और उन्हें यह विश्वास हो गया कि वे मन्त्रबलसे हो सफल हो सकते हैं । युद्ध की भीषणतासे दशों दिशाएं ऐसी भीत हो गयी थीं, जैसेकि चारों
१. द्विसन्धान महाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ६०१६-१७ ॥
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आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९