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ओरसे धूमकेतु छा जाने पर होता है और उनके बाल खड़े हो जाते हैं । सहस्र संघर्ष से उत्पन्न पके धान्यकी बालोंके समान धूसर रंगकी बिजलियां गिर रही थीं, जो यमक्की लम्बी और टेढ़ी जटाके समान प्रतीत होती थीं ।
कविने १२६, १२० १२२, ११२४, २२१ ३१४०, ५/३६, ५६० और ६।२ में उपमाकी योजना की है । १।१५ में उत्प्रेक्षा, १/१४ में विरोधाभास, १।४८ में परिसंख्या २१५ में वक्रोक्ति, २१४ में आक्षेप २०१५ में अतिशयोषित, ३।३४ में निश्चय और २११० में समुच्च अलंकारकारका प्रयोग किया है । तथा वशंस्थ, वसन्ततिलका, वैश्वदेवी, उपजाति, शालिनी, पुष्पिताग्रा, मत्तमयूर हरिणो, वैतालीय, प्रहर्षिणी, स्वागता, दुतविलम्बित, मालिनी, अनुष्टुप् शार्दूलविक्रीडित, जलधरमाला, रथोद्धता, वंशपत्रपतित, इन्द्रच्या, जलोद्धतगति, अनुकूला, तोटक, प्रमिलाक्षरा, अउप छन्दसिक, शिखरिणी, अपटवक्त्र, प्रमुदितवदना, मन्दाक्रान्ता, पृथ्वी, उद्गता और इन्द्रवंशा इस प्रकार ३१ प्रकार के छन्दोंकी योजना की है।
द्विरूपानकाय में व्याकरण, राजनीति, सामुद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणितशास्त्र एवं ज्योतिष आदि विषयोंकी चर्चाएं भी उपलब्ध हैं । यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं
पदप्रयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसर्गे च कृतावधानम् । सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रमं तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ||३|३६
अर्थात् शब्द और धातुरूपोंके प्रयोगमें निपुण, षत्व णत्वकरण, सन्धि तथा विसर्गका प्रयोग करनेमें न चूकनेवाले और समस्त शास्त्रोंके परिश्रमपूर्वक अध्येता वैयाकरण व्याकरणके अध्ययन के समान चापविद्या में भी बना व्याकरणको नहीं छोड़ते हैं ।
विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्यं स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम् । प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थं शब्दागमे प्राथमिकोऽभवद्धा || ५ | १० व्याकरणशास्त्रका प्रारम्भिक छात्र विसन्धि-सन्धिहीन अलग-अलग पदों का प्रयोग करता है, क्योंकि सन्धि करना नहीं जानता है । केवल विग्रहपदों का अर्थ करता है । कृदन्त आदि अन्य कार्य नहीं जानता है और न तद्धित ही जानता है | आगमोंका अभ्यासी भी कार्यविशेषका विचारक बन व्यापक सामान्यको भूलता है, विवाद करता है । समन्वय नहीं सोचता है और अभ्युदय-निःश्रेयसके लिये प्रयत्न नहीं करता है ।
धनन्जयने व्याकरणशास्त्रका पूर्ण पाण्डित्य प्रदर्शित करनेके लिये अपवादसूत्र और विधिसूत्रोंका भी कथन किया है
१० : वीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा